कोई तो सुनो... भारत गांवों का देश है। गांवों की अपनी रवानगी है। अपनी सोच है। अपने मानक हैं। अपनी सादगी है। कलुष रहित स्वभाव। इन्हीं गांवों में सरकार को ‘माय-बाप’ और न्यायाधीश को ‘भगवान’ माना जाता है। जब देश की राजधानी दिल्ली में तमाम राज्यों के मुख्यमंत्रियों, मंत्रियों और न्यायाधीशों का जमावड़ा हुआ हो और उसमें ‘भगवान’ के ‘आंसू’ छलक पडेÞ, तो चर्चा तो होगी। ये आंसू खुशी के नहीं थे, दर्द के थे। पीड़ा के, भावुकता के थे। इधर आंसू छलके और उधर ‘माय-बाप’ उठ खड़े हुए। बोले, दूर होगा दर्द। रास्ता आप बताएं, काम हम करेंगे। जी हां, 24 अप्रैल, 2016 को नई दिल्ली में भारत के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस टी.एस. ठाकुर बोलते-बोलते भावुक हो गए। पीड़ा को बताते समय गला रूंध गया और आंख भींग गए। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सांत्वना दिया और कहा कि ‘मैं आपकी व्यथा को समझ सकता हूं। वर्ष 1987 में किया गया वादा अगर 2016 तक भी पूरा न हुआ हो, तो दर्द को समझा जा सकता है।’ आखिर यह पीड़ा किस बात की? पीड़ा तो काम के बोझ की है। न्यायलयों में बढ़ते लंबित मामले और न्यायाधीशों की कमी का दुखड़ा सुना गए मुख्य न्यायाधीश। कार्यपालिका और न्यायपालिका ने एक-दूसरे से अपना दुख साझा किया। आखिर इस मर्ज की दवा क्या हो? कार्यपालिका न्यायपालिका के अधिकार क्षेत्र में क्या हस्तक्षेप करेगी? मोदी सरकार ने सत्ता संभालने के तुरंत बाद सबसे बड़ा फैसला राष्ट्रीय न्यायिक आयोग के गठन का लिया और उसे संसद ने सवार्नुमति से पास किया। इसलिए कि पक्ष हो या विपक्ष वह जनता की इस मनोभावना को समझ-बूझ रहा है कि न्यायपालिका में भी वैसे सुधार जरूरी है जैसे कार्यपालिका, राजनीतिक-चुनावी व्यवस्था में हुए हैंै या हो रहे हैं। यदि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यह कहा कि यदि संवैधानिक सीमाएं समस्या न पैदा करें, तो शीर्ष मंत्री और सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ न्यायाधीश बंद कमरे में एक साथ बैठकर कोई समाधान निकाल सकते हैं। वाकई, यदि यह इच्छाशक्ति विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका मिलकर दिखाए, तो अच्छे दिन आ सकते हैं। जनता के भी और न्यायाधीश के भी। लेकिन, देश के उस आदमी का क्या होगा? जिसे दो जून की रोटी तक मयस्सर नहीं। हमारी बजबजाती व्यवस्था में भूख से तड़पती देह को मौत हर पल अपने आगोश में लेने को बेताब है, उसकी सुध कौन लेगा? क्या माय-बाप और भगवान आएंगे, उसकी कुटिया में? रोटी के आगे तमाम नियम-कानून बेमानी लगते हैं। घर की इज्जत जब रोटी के लिए देहरी से बाहर जाते ही नीलाम होने लगे, तो हमारा मन कचोटता है। भावनाएं छलनी होने लगती है। तभी तो ‘मौत बांटती भूख’ को हमने आवरण कथा बनाया है। आजादी से पूर्व कथासम्राट ने प्रेमचंद ने ‘कफन’ लिखा था। दशकों बीत गए, लेकिन देश- समाज में आज भी आपको घीसू, माधव और बुधिया मिल जाएंगे। क्या इसको रोकने के लिए भगवान कुछ करेंगे? गांवों का प्रदेश है हरियाणा। मुख्यमंत्री ने एक नहीं, सोलह सलाकार पाल रखे हैं। लेकिन, काम ? गांववाले के लिए कुछ भी नहीं। जाट आंदोलन का उबाल पूरा देश देख चुका है। उसके बाद से भी लगातार ग्रामीणों की उपेक्षा हो रही है। हरियाणा से सटे पंजाब में विधानसभा चुनाव की पटकथा अभी से ही लिखानी शुरू हो चुकी है। दोआबा के दलितों पर हर राजनीतिक दल की गिद्ध दृष्टि है। मानो दोआबा जीत लिया, तो पंजाब जीते। हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर, मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल, झारखंड, असम के अलग-अलग मुद्दों पर हमारे सहयात्रियों ने पड़ताल की है। उत्तर प्रदेश में मिशन-2017 को लेकर राजनीतिक दलों के बीच सरगर्मियां बढ़ी हैं। इसी महीने मोदी सरकार के दो वर्ष पूरे होने वाले हैं। बेशक मोदी सरकार की बड़ी योजनाएं ठोस विकास की नींव रखने वाली दीर्घकालीन योजनाएं हैं, लेकिन वे जिन आशाओं-आंकांक्षाओं पर सवार होकर सत्ता में आए, वे काफी अधिक हैं। जनता उन्हें तुरत-फुरत पूरा होने की आस लगाए बैठी है। और वास्तविकता ये है कि उम्मीदों और सरकार के प्रदर्शन में अंतर दिखता है। बिहार की वर्तमान राजनीति केवल और केवल नीतीश कुमार के इर्द-गिर्द घूमती दिखती है। वर्तमान से भविष्य का रास्ता दिखता है। इस लिहाज से साल 2017 भाजपा के लिए किसी ‘लाक्षागृह’ से कम नहीं साबित होने वाला है। उत्तर प्रदेश में जहां उसे ‘कमल’ खिलाना है, तो गुजरात के किले को बचाना है। पार्टी अध्यक्ष जिस प्रकार से भाजपा शासित राज्यों में पत्ते फेंटकर अशोक रोड पर नए चेहरे ला रहे हैं, वह कई सवालों को जन्म दे रहा है। इसी दिल्ली में केजरीवाल की सरकार है। अरिवंद केजरीवाल खुद को ‘सिंकदर’ मनवाने के लिए तरह-तरह के हथकंडे अपना तो रहे हैं, लेकिन न तो केंद्र सरकार और न ही जनता है तैयार। राजनीति देखिए, उसकी धार देखिए।
Shuklapaksh is a political fortnightly Hindi magazine which will give a prominent place to various issues of development and hindrances in the Indian states and worldwide. Apart from topics of politics and political economy, it will also cover a wide range of topics including Arts, Entertainment, Sports, Science and Business. The word Shuklpaksh means the period of brightening moon and here we as a magazine want to put light on the sections of the society which are not been exposed or has not been brought to readers notice. The magazine will aim to provide analysis and criticism on politics, culture, and the arts from those from both inside and outside the local mainstream. Since we will be concentrating more on Indian Politics, we will be trying to give a new opinion and vision to our readers which will be different from other mainstream political magazines. Its for the people who are keen on reading more and gather more information about current Indian Politics. Our policy here is to state the facts and make a difference.