चलिए सबके पास चलें हम कब तक अपनी ही रचनाओं को स्वयं पढ़कर खुश होते रहेंगे । एक रचनाकार दूसरे रचनाकारों की रचना को पढ़कर वाहवाही कर देता है । वाहवाही पाने वाला भी समझ लेता है कि उसकी रचना उत्कृष्ट है जबकि वो रचना लिख रहा होता है साधारण जन के बारे में । वे साधारण जन, जो वर्तमान साहित्य तो क्या, हमारे गणमान्य साहित्यकारों तक को नहीं पहचानता । हम दावे के साथ कह सकते हैं कि अगर हम दस ख्यातिलब्ध साहित्यकारों की तस्वीर किसी पढ़े-लिखे स्नातक को दिखाकर पुछें कि यह किस-किस साहित्यकार की छवि है, तो वह सिर्फ पाँच या छह को ही पहचान पाएगा । मगर किसी फिल्मकार की तस्वीर दिखाई जाए तो वह आठ-नौ तक सही पहचान लेगा। यही हाल हमारी नई पीढ़ी का है। तो क्या इसमें दोष उन्हीं का है? नहीं! हम तो कहेंगे कि इसमें दोष हम साहित्यकारों का है जो हम अपनी विराट विरासत का परिचय और पहचान इस नयी पीढ़ी से नहीं करवा रहे हैं । हम अपनी रचनाएँ प्रकाशित करने में लगे हुए हैं, उनका प्रचार करने में लगे हुए हैं । हम नुक्कड़ नाटक जैसे कार्यकलाप कर, समाप्तप्राय संवेदनाओं को साहित्य के गौरव के साथ जनता तक पहुँचाने के लिए क्या सचमुच कुछ कर रहे हैं ? "मिटा दे अपनी हस्ती को" वाला जज़्बा हमारे अंदर कहां है ? कुछ रचनाकारों को कहते सुना गया है कि हम एक विशेष "क्लास" के लिए रचना कर रहे हैं, उनसे पूछा जाए कि प्रख्यात गद्यकार श्री हजारीप्रसाद द्विवेदी ने "साहित्य" शब्द का अर्थ सबके साथ और सबके हित में, आखिर किसलिए बताया था ? जनसाधारण साहित्य से विमुख हो रहा है तो इसमें क्या आश्चर्य ! संवेदना के सेतु बन ही कहां रहे हैं कि हम जीवन को नई भावनात्मक ऊर्जा दे सकें, साहित्य को संजीवनी के रूप में सामने रख सकें! ऐसे में स्वाभाविक ही है कि अनुप्रेरण से हीन और कैरियर के प्रति चिंतित युवा घोर व्यक्तिवादी होकर स्वार्थ के पुतले बन जाते हैं। डॉक्टर, इंजीनियर, उद्योगपति, नेता, अभिनेता, शिक्षक, साधारण व्यवसायी आदि सभी ऐसी राह पर चल पड़े हैं जिस पर धन-दौलत-प्रतिष्ठा के अलावा अन्य कुछ भी प्रधान नहीं है । मानवमात्र के सर्वतोमुखी कल्याण के लिए आज साहित्य को शिक्षित समाज में ऐच्छिक नहीं बल्कि अनिवार्य विषय के रूप में लिया जाना चाहिए, ठीक वैसे ही जैसे किसी-किसी देश में सैन्य प्रशिक्षण को अनिवार्य किया गया है। कारण स्पष्ट है कि साहित्य भी सैन्य की भांति जीवन-रक्षक है- वह भीतर से मानवता की रक्षा करता है और अभय देता है। इधर कम्प्यूटर को आवश्यक बताया जा रहा है लेकिन साहित्य को कोई महत्व नहीं है। भले ही हम राग अलाप लें कि साहित्य पढ़ने-लिखने वालों की संख्या में इज़ाफा हुआ है, बहुत सारे नये रचनाकार सामने आये हैं। मगर साहित्य जब तक सभ्यता का मापदंड नहीं बनेगा, तब तक हम असभ्यता के पथ पर ही अग्रसर होते रहेंगे और कितनी ही निर्भयाओं का सर्वनाश करनेवाले मानव रूपी दैत्य उत्पन्न करते रहेंगे !!!
मरुतृण साहित्य-पत्रिका एक ऐसी लघु पत्रिका जो कोलकाता के बैरक पुर से सत्य प्रकाश ’भारतीय’ द्वारा राजेन्द्र साह के सहयोग से निकाली जा रही है । आकार में लघु लेकिन साहित्य के चयन में उकृष्टता बरतने की पूरी कोशिश की जाती है । कम समय में यह पत्रिका साहित्यकारों और पाठकों के पठन -पाठन और चर्चा में शामिल हो गई है ।