तिहाड़ जेल के अंदर मैंने जो कुछ भी देखा उसे मैंने उस मानवीय संवेदना से बांध लिया जो मेरे फर्ज़ के लिए जरूरी थी। मैं वहां सुधार लाने गई थी न कि इल्ज़ाम लगाने। समस्या गंभीर थी। उसे समझने में मुझे कुछ महीने लगे। चाहे किसी को कितनी भी जल्दी क्यों न हो, ऐसे संस्थानों की परतें उघाड़ने में वक्त लगता है। तिहाड़ जेल ने मेरे धैर्य की बेइंतहा परीक्षा ली पर आखिर में उसके निवासियों के मन में जगह बनाने में कामयाब हो गई। अब वही इमारत तिहाड़ आश्रम कहलाती है । - इसी पुस्तक से