“सरसों के जूड़े में टेंसू का फूल” मेरी आत्मा की आवाज़ है सो आप जैसे रसिक पाठकों की सेवा में पेश है आज की अवधी वह नहीं जो ‘जायसी’ के ज़माने में थी, हां गौस्वामी तुलसीदास ने फारसी, अरबी, तुरकी के शब्दों को अवधिया कर हमें रास्ता दिया कि शिल्प शैली किसी की बपौती नहीं।