सरोज मालू का यह काव्य संग्रह उसके हृदय की तरह खुला व सरल है। यह हम सभी के मन में उठने वाली भावदशायें, शंकाये है जिन्हें कवियत्री ने बहती नदी की तरह कविता में ढालने का सहज प्रयास किया है।
सरोज जी की कविताएं लबरेज हैं तुम, तुम्हारा, उसका, उसी, वो, उन्हें, उनका आदि जैसे उनके इंगित संबोधनों से, पर कौन है इन शब्दों के पीछे? किसके लिए गढ़ी गई हैं ये सारी कविताएं? किसके मौन आमंत्रण में वह बावली हो उठती हैं? कौन है वो जिसे वह अपने इर्द-गिर्द महसूस करती हैं और कौन है जिसे वह टटोलती भी हैं और उसमें खुद को डूबा हुआ भी पाती हैं और इतना कुछ लिख जाती हैं।