आज जब जीवन के संध्याकाल की एक ऊँचाई पर अपनी मंजिल के आस-पास खड़े होकर देखता हूँ तो ऐसी भावना होती है कि जैसे पूरी रामचरितमानस के पन्ने मेरे सामने खुलते चले गए और मेरे मन ने महाकवि गोस्वामी तुलसीदास के दो भावों को अपना लिया - पहला शुरू के सातवें श्लोक की पंक्ति “स्वान्तः सुखाय तुलसी रघुनाथ गाथा” यानी आत्मसुख-संतोष के लिए उन्होंने रामकथा लिखी। तब अंत में मिला - “पायो परम विश्रामु राम समान प्रभु नाही कहूँ” अर्थात् “रामकथा लिखकर जीवन में परम विश्राम मिल गया, राम के समान कोई स्वामी कहीं नहीं है।”