व्यंग्यात्मक शैली और सहज, सरल शब्दों के भाषाई तानेबाने से बुने उपन्यास “जुआगढ़” की कहानी हँसते, गुदगुदाते केवल ‘जुआ’ जैसे लगभग अनछुए विषय पर खुलकर प्रकाश ही नहीं डालती, बल्कि कस्बाई और ग्रामीण क्षेत्रों में पनपते इसके व्यवसायीकरण का विश्लेषणात्मक खाका भी खींचती है। जिसमें एक ओर जुआरियों के जीवन और उनके अंतरद्वंद्वों से जुड़े विभिन्न अनदेखे, अनसुने पहलू और उनसे जुड़े कठोर और निर्मम यथार्थ को “जुआगढ़” रेखांकित करता है तो दूसरी ओर आदमी की उस जंगली मानसिकता को भी उजागर करता है जो सिर्फ अपने बारे में सोचती है और इस एक हार-जीत के खेल को दूसरे के लिए पतन और मौत का सामान बना देती है। जीत की उम्मीद में पैसों को दाँव पर लगाते लगाते कब और कैसे इनकी पूरी दुनिया दाँव पर लग जाती है इन्हें खुद पता नहीं चलता...या फिर ये समझना ही नहीं चाहते!.