प्रस्तुत पुस्तक वैसे तो एक उपन्यास है किन्तु इसे एक प्रतिपुराण भी कहा जा सकता है। प्रत्येक मनुष्य सच्चिदानंद है इसलिए उसके जीवनवृत्तांत को एक पुराण ही होना चाहिए किन्तु कभी-कभी परिस्थतियोंवश उसकी जीवनगाथा एक प्रतिपुराण बनकर भी रह जाती है। इस उपन्यास में हिन्दू-संस्कृति के अंतर्गत पारिवारिक मूल्यों में व्याप्त दुराग्रह ओर विवेकहीनता का चित्रण किया पाया है। यह उपन्यास कथावस्तु, चरित्र-चित्रण , देशकाल-वातावरण तथा उद्देश्य प्रभृति सभी दृष्टिकोणों से विशिष्ट व संग्रहणीय है ।