समाज में दिनोंदिन तेजी से बढ़ती जा रही अमानवीयता, असंवेदनशीलता और पाशविकता की घटनाओं को देख, सुन, पढ़ते लेखक का मन व्यथित हो उठा। इसी पीड़ा ने पुस्तक- ‘ढूँढ़ते रह जाओगे इंसानियत’ को इस प्रश्न के साथ जन्म दिया कि क्या दुनिया से मानवता या इंसानियत खत्म हो जायेगी? और क्या हम इंसानियत को ढूँढ़ते ही रह जायेंगे? यदि ऐसा होता है तो फिर बिना इंसानियत के इंसान कहाँ बचेगा?