अंदरुनी पन्नों में उम्मीद का एक लंबा सफर दर्ज है जो सदैव के लिए धुंधली हो गई। 'रेप' का घिनौना सा शब्द सुनते ही या आपकी नज़रों के सामने से निकलते ही, इस कड़वी बात से दिमाग पर बेचैनी छा जाती है। आपको बहुत गुस्सा आता है, अपराधी का गला दबाकर आप खुद ही सज़ा देना चाहते हो, लाचार होते हो, विक्टिम पर दया आती है। 'निज़ाम बदल देना चाहिए’, 'औरत देवी है, माँ है’ और कहीं-कहीं बड़ी बहन भी। सोचते हैं, जहां कहीं किसी का जितना भी बल लगता है, रेहड़ी ढ़ोते मज़दूर से लेकर प्राइम मनिस्टर तक, अपनी पहुंच तक शोर मचाते हैं, 'ऐसा नहीं होना चाहिए था’ का शोर। जितना बड़ा रुतबा उतना बड़ा शोर..एक और बात है कि मज़दूर के गुस्से में सदाकत होती है और राजनीति में सरासर आडंबर। धर्म के ठेकेदार भी इस सब में बराबर के भाई बंधु हैं। खैर... कुछ समय पहले राजधानी में एक चलती बस में 'दामिनी' का रेप हुआ। हैवानीयत का नंगा नाच, जिस्म मार झेलता रहा होगा, रुह रौंधी गई होगी और हुआ होगा 'रेप', एक उम्मीद का और आखिर तक जख्मों का भरना बादस्तूर जारी रहा होगा।
पंजाब के एक छोटे से गाँव में कुछ ऐसा ही हो गुज़रता है, आज से लगभग चालीस साल पहले। उस समय भी एक 'रेप' हुआ था। एक उम्मीद सदा के लिए धुंधली हो गई थी। एक अंकुरित होती हुई उम्मीद, वहशी हवस की लौ में झुलस गई थी। ...मुद्दत से इन सब बातों को मन में लेकर जिंदगी की ऊँच—नीच में से गुजरा हूं मैं। ....साहस ही नहीं होता था ....मुश्किल फैसला क्या ग़लत है और क्या सही का। ...लिखना वाजिब है या नहीं। एक कश्मकश बादस्तूर जारी रही। और अब ...साहस जुटा कर हाज़िर हुआ हूँ आप पाठकों की कचहरी में, यही सोच लेकर कि बस एक ही जलते हुए दिए की लौ पर्याप्त होती है अंधकार को चीरने के लिए और हर काफिले की बुनियाद पहला कदम ही तो होता है...हम कभी तो जागेंगे।