हास्य रस एक लंबे समय से तथाकथित बुद्धिजीवी साहित्यकारों में हेय दृष्टि से देखा जाता है। उसे मंचों पर अश्लीलता, फूहड़पन, अशालीनता, लफ़्फ़ाजी के द्वारा श्रोताओं को प्रभावित करने के दोष से समाचार पत्रों में दंडित किया जाता है और मुझे कहने में संकोच नहीं है कि आजकल कवि सम्मेलनों की व्यावसायिकता से प्रभावित होकर कुछ कवि ऐसा करने में जुट भी गए हैं किन्तु महेन्द्र अजनबी इन दोषों से मुक्त एक ऐसा निष्कलुष कवि है, जिसने अपनी सार्थक शुभ कविताओं से काव्य-मंच को गरिमा प्रदान की है। आरम्भ से ही इस कवि की वाक्पटुता, शब्द-चयन, आलंकारिक प्रयोग, सहज-सरल-शालीन भाषा तथा विषय के प्रति न्यायपूर्ण संगति स्वाभाविक रूप से स्वतः समुद्वेलित होती रही है। उसके काव्य संकलन का शीर्षक ‘हँसा हँसा के मारूँगा’ वैसे विरोधाभास पैदा करता है किन्तु उसके अन्तर्निहित जो सरगर्भित अर्थ है, उसकी गहनता में जाकर सोचें तो यह शीर्षक बहुत ही महत्वपूर्ण और साभिप्राय है। हँसाना और वह भी शिष्ट शैली और वाक्यांश से, सरल काम नहीं है। स्मित, मुस्कान, ठहाके से लेकर अट्टहास तक पहुँचाकर लोट-पोट कर देने की स्थिति तक, अजनबी की कविताएँ श्रोताओं को ही नहीं, मंच के कवियों को भी इतने ही आनंद से आन्दोलित कर देती हैं कि वे कह उठते हैं‒‘बस कर यार! अब क्या हँसा हँसा कर मार ही डालेगा!’ रोते हुए लोगों को हँसाना और हँसते हुए लोगों को इतना हँसाना कि हँसते हँसते उनकी आँखों में आँसू आ जाएँ, ये कार्य कोई बिरला ही कर सकता है और इस कार्य की कुशलता के अग्रगण्य इने-गिने कवियों में महेन्द्र अजनबी का नाम रेखांकित किए जाने योग्य है।