'रति श्रृंगार और संन्यास सार’ शीर्षक प्रस्तुत ग्रंथ मूलरूप में ‘रम्भा-शुक्र-सम्वादः’ नाम से परंपरा-प्राप्त है। प्रयोजनवश ग्रंथनाम में परिवर्तन किया गया है। रम्भा और शुक दो व्यक्ति हैं। ये दोनों निमित्त-मात्र हैं। वस्तुतः यहाँ भारतीय चिंतन, अनुभूति और आचरण की प्रयोगशाला में काम तथा अध्यात्म का जो संघर्ष और द्वंद्व है, उसी का सिद्धांत-निष्कर्ष उपस्थित है। रम्भा और शुकदेव प्रतीक-मानव भी हैं। महत्त्वपूर्ण है, सिद्धांत-संघर्ष और निर्णय-निष्कर्ष। इसीलिए ‘रति- श्रृंगार और संन्यास सार’ शीर्षक की सार्थकता है।
दूसरी बात यह कि किसी प्राचीन प्रामाणिक ग्रंथ में इन दोनों के इस संवाद या वक्रोक्ति-वाग्द्वंद्व का कोई उद्धरण-उल्लेख मिलता भी नहीं। कभी-कभी किसी सिद्धांत या आचरण के लिए कोई व्यक्ति प्रतीक और मिथक बन जाता है। शुकदेव मुनि परम वैराग्य के प्रतीक-पुरुष हैं, जबकि रम्भा रति श्रृंगार की प्रतीक-नारी। इसीलिए ये दोनों नाम यहाँ किसी रचनाकार की विलक्षण प्रतिमा की अभिव्यक्ति के लिए प्रतीक-मिथक अथवा निमित्त-मात्र के रूप में उपयुक्त किए गए हैं।