पुस्तक की शीर्षक कथा ‘तेरहवां पृष्ठ’ को कदाचित् लघु उपन्यास की संज्ञा देना अनुचित न होगा। इसका कथ्य यथार्थ और कल्पना के ताने-बाने से निर्मित तो है ही, ‘सस्पेंस’ से भरपूर है। कानपुर के परेड के पटरी बाजार में बड़े मियां की किताबों की दुकान पर अचानक हाथ लगने वाली एक जीर्ण-शीर्ण पुस्तक के पन्ने कथानायक को अपने सम्मोहन-जाल में बांधकर क्या-क्या शीर्षासन कराते हैं, इसे पढ़ना अपने आपमें एक कौतुक है। किसी तिलस्मी दुनिया में पांव धरने से कम जादुई लोक नहीं है यह। रहस्य-रोमांच का एक अद्भुत समन्दर इसके शब्द-शब्द में हिलोरें ले रहा है। एक बैठक में स्वयं को पढ़ा लेने का गुण ही इसे अन्य कथा-सृष्टियों से अलग, अभिनव और अनूठा बना देता है।