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Meri samvedna मेरी संवेदना
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Meri samvedna मेरी संवेदना

By: ANURADHA PRAKASHAN (??????? ??????? ?????? )
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Single Issue

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About this issue

"हाथ छूटे भी तो रिश्ते नहीं छोड़ा करते वक़्त की शाख़ से लम्हें नहीं तोड़ा करते" क्या खूब बात कही है गुलज़ार साहब ने। जिस तरह एक निरंतर बहती नदी अपने रास्ते में आने वाले पत्थरों और किनारों पे अपने निशान छोड़ जाती है, उसी तरह इस जिंदगी में विभिन्न व्यक्तित्व के लोग मिलते हैं, बिछड़ते हैं और ज़िंदगी चलती रहती है, अपने जज़्बातों के, स्मृतियों के निशान पीछे छोड़ती हुई। रिश्ते बनते हैं और हमारे अनुभवों की तिजोरी में कुछ अशर्फियां दे जाते हैं। हमें लगता है, रिश्ते टूट गए हैं, पर वो टूटते नहीं, हमारे देखने का नज़रिया बदल जाता है। अपने अंतर्मन में झांक कर देखें, कुछ पल के लिये इस भागदौड़ से हट कर देखें तो लगता है, रिश्ते कभी नहीं टूटते, सिर्फ उनके ख़ाने बदल जाते हैं, ज़िंदगी की बिसात पर, हमारी प्राथमिकताएं बदल जाती हैं।
कुछ ऐसे ही रिश्ते और उनसे जुड़ी आत्मीयता, मन के अंतरभावों और जज़्बातों को व्यक्त करने का प्रयास किया है मैंने अपनी पहली किताब "मेरी संवेदना" में।
मेरे पति अविक खुद हिन्दी नहीं पढ़ सकते, उसके बावजूद "मेरी संवेदना" के प्रकाशन में जो रुचि उन्होंने ली और जो प्रोत्साहन मिला उनसे, उसका आभार शब्दों में व्यक्त कर पाना थोड़ा कठिन है। साथ ही उन सभी का आभार व्यक्त करना चाहूंगी, जो किसी न किसी मोड़ पर मुझसे जुड़े, इस पथ के साथी बने और एक प्रेरणा दे गए, एक और कविता लिखने की।
इस पुस्तक का प्रकाशित होना एक संयोग ही है। यूँ ही एक दिन इंटरनेट के द्वारा अनुराधा प्रकाशन के शर्मा जी से आलाप हुआ। उनका सहयोग और प्रोत्साहन ही है, जिसके हेतु "मेरी संवेदना" आपके सन्मुख है।

About Meri samvedna मेरी संवेदना

"हाथ छूटे भी तो रिश्ते नहीं छोड़ा करते वक़्त की शाख़ से लम्हें नहीं तोड़ा करते" क्या खूब बात कही है गुलज़ार साहब ने। जिस तरह एक निरंतर बहती नदी अपने रास्ते में आने वाले पत्थरों और किनारों पे अपने निशान छोड़ जाती है, उसी तरह इस जिंदगी में विभिन्न व्यक्तित्व के लोग मिलते हैं, बिछड़ते हैं और ज़िंदगी चलती रहती है, अपने जज़्बातों के, स्मृतियों के निशान पीछे छोड़ती हुई। रिश्ते बनते हैं और हमारे अनुभवों की तिजोरी में कुछ अशर्फियां दे जाते हैं। हमें लगता है, रिश्ते टूट गए हैं, पर वो टूटते नहीं, हमारे देखने का नज़रिया बदल जाता है। अपने अंतर्मन में झांक कर देखें, कुछ पल के लिये इस भागदौड़ से हट कर देखें तो लगता है, रिश्ते कभी नहीं टूटते, सिर्फ उनके ख़ाने बदल जाते हैं, ज़िंदगी की बिसात पर, हमारी प्राथमिकताएं बदल जाती हैं।
कुछ ऐसे ही रिश्ते और उनसे जुड़ी आत्मीयता, मन के अंतरभावों और जज़्बातों को व्यक्त करने का प्रयास किया है मैंने अपनी पहली किताब "मेरी संवेदना" में।
मेरे पति अविक खुद हिन्दी नहीं पढ़ सकते, उसके बावजूद "मेरी संवेदना" के प्रकाशन में जो रुचि उन्होंने ली और जो प्रोत्साहन मिला उनसे, उसका आभार शब्दों में व्यक्त कर पाना थोड़ा कठिन है। साथ ही उन सभी का आभार व्यक्त करना चाहूंगी, जो किसी न किसी मोड़ पर मुझसे जुड़े, इस पथ के साथी बने और एक प्रेरणा दे गए, एक और कविता लिखने की।
इस पुस्तक का प्रकाशित होना एक संयोग ही है। यूँ ही एक दिन इंटरनेट के द्वारा अनुराधा प्रकाशन के शर्मा जी से आलाप हुआ। उनका सहयोग और प्रोत्साहन ही है, जिसके हेतु "मेरी संवेदना" आपके सन्मुख है।