पुरोवाक् भारतीय वाङ्मय में हनुमान जी को यदि सर्वविशिष्ट माना जाए तो न अत्युक्ति होगी और न आश्चर्य । वे मन और मरुत से भी अधिक वेगवान्, ज्ञानियों में अग्रगण्य, बुद्धिमानों में वरिष्ठ, भक्तों में शिरोमणि, अतुलित बलधाम, सर्वगुण निधान , सर्व संकटमोचक, सर्व कल्लाणनिरत, सज्जजनरक्षक एवं दुष्टसंहारक के रूप में लोकमानस में व्याप्त हैं । आज भारत राष्ट्र के लिए हनुमच्चरित्र् के अनुशीलन, अनुभावन एवं अनुकरण की अतीव आवश्कता है । वैश्विक स्पर्धा में देहबल, बुद्धिबल, आत्मबल, चरित्र्बल, त्यागबल आदि सभी प्रकार के बलों की अनिवार्यता है । इन सभी के लिए हनुमान जी ही प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप में आदर्श हो सकते हैं । सफलता के लिए हनुमान जी से विशेष प्रेरणा और ऊर्जा मिलती है, क्योंकि उनमें कथनी और करनी, शरीर और मन, ग्रहण और त्याग तथा बुद्धि और विवके का अद्भुत संतुलन दृष्टिगत होता है । हम लक्ष्य तो पाना चाहते हैं, किन्तु संतुलन पर ध्यान नहीं देते । मन से बहुत कुछ सोचते हैं, किन्तु शरीर को सक्रिय नहीं कर पाते । यदि शरीर सक्रिय हुआ भी, तो मन साथ नहीं रहता है । कथनी और करनी में भी पूर्व–पश्चिम का अंतर होता है । ग्रहण और त्याग का विवके तो प्राय% खो चुके हैं । इसीलिए काँच और मणि की पहचान नहीं कर पाते । आज हमारे ऊधर्वगामी न हो पाने के अनेक कारक और कारण विद्यमान हैं । ऊधर्वमुखी होने के लिए आत्मशक्ति–मारुतिशक्ति की अपरिहार्यता है । हनुमद् भाव लाने से दुर्गम कार्य भी सुगम हो जाते हैं । गोस्वामी तुलसीदास जैसे विवेकीजन अपनी सम्पूर्ण उपलब्धियों और सफलता का श्रेय हनुमान जी को देते हैं । तुलसीदास ने तो यहाँ तक कह दिया है– ‘‘रामहि की बिगरी तुहीं सुधार दई है ।’’ सबकी बिगड़ी को बनाने वाले रामजी की बिगड़ी को हनुमान ने सुधारा है । हनुमान जी अहर्निश लोक के शिवत्व में निरत रहते हैं, वस्तुत% वे शिव के ही रूप हैं । तुलसीदास हनुमान जी को अनन्य बड़भागी मानते हैं– ‘‘हनूमान सम नहिं बड़भागी । नहिं कोउ राम चरन अनुरागी । । गिरिजा जासु प्रीति सेवकाई । बार बार प्रभु निज मुख गाई । ।’’ हनुमान जी राम की कला (अंश) हैं । एक बार भगवान राम के पूछने पर कि तुम कौन हो, हनुमान जी ने बहुत ही उपयुक्त एवं तात्विक उत्तर दिया– ‘‘देहदृष्ट्या तु दासो•हं जीवदृष्ट्या त्वदंशक: । वस्तुत: त्वेमाहम् इति मे निश्चला मति । ।’’ परम भागवत डॉ0 उमाशंकर शुक्ल ‘शितिकण्ठ’ बहुअ/ाीत–बहुश्रुत–प्रातिभ कवि हैं । वाल्मीकि रामायण, श्रीमद्भागवत और रामचरितमानस के गहन अनुशीलक एवं मर्मज्ञ हैं । उनकी अन्यान्य कृतियों में ‘धर्मरथी’ (श्रीराम) और ‘भागवतकथामृत’ बहुत सम्मान्य और लोकप्रिय हैं । प्रस्तुत कृति ‘हनुमत्–हुंकार’ भी उसी सरणि में है । कवि की तन्मयता और जागरूकता सम्पूर्ण कृति में परिलक्षित है । यह प्रबंधात्मक रचना है । इसमें सात स्फोट हैं । सर्ग, काण्ड आदि के स्थान पर ‘स्फोट’ की संगति ‘हुंकार’ के साथ बहुत सटीक है । कविवर ‘शितिकण्ठ’ ने ‘विनयपत्र्किा’ की भाँति कृति के आरम्भ में सर्वदेवस्तुति का विधान किया है, वैसे भी गृहस्थों के लिए बहुदेवोपासना सर्वमंगलकारिणी मानी गई है । ‘शितिकण्ठ’ जी ने ‘हनुमत्–हुंकार’ में महावीर हनुमान के अप्रमेय चरित का सरस गान किया है । हनुमच्चरित वस्तुत% रामचरित का पूरक है । इसीलिए कवि ने श्री हनुमान को रामचरित–मणि–माल का सुमेरु कहा है– ‘शक्ति भक्ति सागर, सुमेरु राम नाम के ।’ गोस्वामी तुलसीदास और उसी प्रकार ‘शितिकण्ठ’ हनुमŸवरा से बहुत अभिभूत हैं । महावीर की त्वरा के लिए गोस्वामी जी को तो कोई उपमा ही न मिली और न सूझी, अत% उसको रूपायित करने के लिए उन्हें उत्प्रेक्षा का सहारा लेना पड़ा । सवैया मेरी स्मृति में है– ‘‘लीन्हों उखार पहार बिसाल चल्यो तेहि काल बिलम्ब न लायो । मारुतनंदन मारुत को मन को खगराज को बेग लजायो । ‘शितिकण्ठ’ जी के इस छंद में हनुमŸवरा का सुदंर वर्णन है– ‘‘कुलिश कलेवर हेमाभ रवि शशि नेत्र्, कल कीर्ति का बखान कर सकते न शेष । दूत–कर्म–दक्ष पराक्रम दुर्निवार देख, काँप–काँप् जाती घनी, राक्षस अनी अशेष । सिं/ाु–संतरण की तो समता करेगा कौन, समता न नभोदरगामिता, त्वरा की लेश । जय राघवेन्द्र–चरणाम्बुज के चंचरीक, जगदम्बा जानकी के, स्नेह–सुत, रौद्र–वेश । ।’’– छंद 21 कविवर ‘शितिकण्ठ’ की यह कृति वर्तमान परिवेश के लिए परम प्रासंगिक है । कवि ने सर्वत्र् व्याप्त विसंगतियों, विभीषिकाओं, व्यथाओं, अत्याचार, व्यभिचार आदि के विनाश के लिए सर्वसमर्थ वज्रांग महावीर का आवाहन किया है । निश्चय ही हम सभी को विशेषत% युवा पीढ़ी को बिना भेद–भाव हनुमद्भाव अपने मन, वचन और कर्म में लाना चाहिए, तभी विपत्ति और विसंगति के सागर का संतरण संभव हो सकेगा । कवि ने इस संदर्भ में निर्मल मन एवं सदय हृदय से हनुमत्प्रार्थना की है– ‘‘दीजिए विवेक, बल–विक्रम हे महावीर, युवा शक्ति जागे, तम–अं/ाड़ का अंत हो । संस्कृति–सनातन का सूर्य हो सतेज फिर, दासता–दुष्कृत्य–जन्य, संस्कृति अदंत हो । छली बाहुबलियों के, जलें स्वर्ण लंक–गढ़, निर्भय निबल, सुकृती समाज–संत हो । समता, सहिष्णुता, सुबन्/ाुता के गूँजे मंत्र्, एकता–अखण्डता की अस्मिता अनंत हो । ।’’ छंद– 157 संक्षेप में यह कहना समीचीन है कि ‘हनुमत्–हुंकार’ जैसी महत्कृति की वर्तमान जागतिक परिप्रेक्ष्य में नितान्त आवश्यकता है । भाव एवं शिल्प की दृष्टि से यह सहज सरस एवं प्रेरक रचना है । इस कृति के पठन–श्रवण एवं अनुशीलन से ऐहिक–आमुष्मिक–मंगल प्राप्ति अवश्य होगी । ऐसी रससिद्ध कृति की उद्भावना के लिए डॉ0 ‘शितिकण्ठ’ जी सर्वथा श्लाघ्य हैं । दि0 11–2–2019 –हरिशंकर मिश्र (प्रो0 हरिशंकर मिश्र) पूर्व आचार्य, हिन्दी विभाग लखनऊ विश्व विद्यालय, लखनऊ ।