Poetry comic attempt to bring forth the plight, struggle of theatre artists in India.
जब समाज के एक बड़े तबके का ध्यान गरीबी, भुखमरी, बेरोज़गारी और जीवन के लिए ज़रूरी बातों पर लगा होता है तो कला जगत को अपने रचनाओ के लिए कई मुद्दे मिलते हैं लेकिन उसी कला जगत को खाने के लाले भी पड़ जाते हैं। ज़िन्दगी के लिए की ज़रूरी चीज़ें जुटाने को घिसटता समाज कला को सिर के बालों की तरह मान लेता है। बालो के बिना भी जीवन चल सकता है तो ऐसे परिवेश में कलाकार सिर के बालों की तरह उड़ जाते हैं, जबकि कला तो समाज की आत्मा, हृदय सी होती है। आत्मा बिना एक रोबोट सा जीना भी क्या जीना? भारतीय नाट्य, थिएटर कलाकारों को ऐसे माहौल में अपनी प्रतिभा, कला को संजो कर गुज़ारा करना पड़ता है। जहाँ संसाधनों की बर्बादी की इतनी ख़बरें आती हैं तो लगता है कि अगर उस अपव्यय में से थोड़ी सी कद्र ऐसे कलाकारों को मिल जाए तो कितने जीवन सफल हो जाएं। एक काव्यांजलि सभी सच्चे अदाकारो-कलाकारों के नाम!