जिन्हें हम ने आदर्श माना, वास्तव में वे आदर्श न हो कर हमारे पथभ्रष्टक थे। इसी कारण हम पगपग पर गिरते रहे, पिछड़ते रहे और अंततः इसी कारण हजारों वर्षों तक हम विदेशियों के गुलाम भी रहे। इन का सब से बड़ा कारण इन विभूतियों में ‘मैं’, ‘मेरा’ और ‘मुझे’ का बोलबाला था- बाकी सब उन के सामने शून्य थे। इसलिए हम इस पुस्तक में उन विभूतियों की चर्चा कर रहे हैं, जिन्होंने ‘हमारा’ और ‘हम’ पर अपना सारा जीवन न्योछावर कर दिया, जैसे कि ‘मैं’ तो उन के शब्दकोश में था ही नहीं- ये ही वे विभूतियां हैं जो हमारे समाज के गुदड़ी के लाल हैं, जिन्होंने अपनी इच्छाशक्ति, अपेक्षा तथा परिवार को भी ‘अपने देश’ के लिए कुरबान कर दिया, क्योंकि इन व्यक्तियों को न तो चाटुकारिता पसंद थी और न ही वे अपने को ‘भगवान’ कहलवाना चाहते थे। उन का उद्देश्य तो केवल भारत व भारतीय समाज को समृद्ध तथा खुशहाल बनाना था।