अपने जन्म से लेकर वर्तमान तक सिनेमा की भाषा और उसके प्रस्तुतीकरण में कई प्रकार के उल्लेखनीय बदलाव हुए हैं। इतने वर्षों के अपने इस सफर में सिनेमा माध्यम ने कई धारणाओं को तोडा और एक माध्यम के रूप में अपनी उपयोगिता को सिद्ध भी किया। एक और जहाँ वो जन सामान्य के मनोरंजन का माध्यम बना तो दूसरी और उसने सामाजिक विकास में भी महत्वपुर्ण भूमिका का निर्वाह किया। यह पुस्तक भारत में सिनेमा माध्यम के आगमन से लेकर उसके आजतक के सफर का महत्वपूर्ण दस्तावेज है। इस पुस्तक में भारत में सिनेमा माध्यम के विविध आयामों को तो प्रस्तुत किया ही गया है साथ ही महत्वपूर्ण भारतीय फिल्म निर्देशकों की सिने दृष्टि पर भी चर्चा की गई है। सिनेमा और समाज एक दूसरे से अभिन्न रूप से जुड़े हुए हैं और यह पुस्तक भारत के संदर्भ में इस सम्बन्ध को भी गहराई के साथ प्रस्तुत करती है। दादा साहेब फाल्के से लेकर राजकपूर, गुरुदत्त और अनुराग कश्यप तक के इस सफर को सिनेमा माध्यम की ही तरह कहीं मनोरंजक और हलके-फुल्के ढंग से तो कहीं श्याम बेनेगल और मणि कॉल के सिनेमा की ही तरह बहुत ही गंभीर रूप से प्रस्तुत करती है।