Sahityveer
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मन की बात आज अपनी किताब ‘साहित्यवीर’ की भूमिका लिखने बैठी तो मुझे ‘हरिवंश राय बच्चन जी’ का कथन ’क्या भूलूँ क्या याद करूं’ याद आ गया.बहुत सारी अविस्मर्णीय यादें हैं, जिन्होंने मुझे इस मुकाम तक पहुंचाया, समझ नहीं आ रहा कि उनमें से किसका जिक्र करूं और किसको छोडूं..! परिवार ही बच्चे का सबसे पहला स्कूल होता है. अपने लेखक पिता के कारण मैंने होश संभालते ही अपने चारों ओर साहित्यिक किताबों का भण्डार देखा और साहित्यकारों का घर में आना-जाना भी होता रहता था,इसलिए पढ़ने की रूचि बचपन में ही पैदा हो गई थी. मेरे पिता जी उच्च शिक्षित थे और उनकी हिंदी और अंग्रेज़ी दोनों भाषाओं पर अच्छी पकड़ थी.भाषा में जरा सी भी दुविधा होने पर तुरंत डिक्शनरी देख कर आश्वस्त होते थे और मुझे भी ऐसा करने की सलाह देते थे. उस जमाने में हमारे खानदान की लड़कियों को अधिक पढ़ाया-लिखाया नहीं जाता था,लेकिन इसके विपरीत उन्होंने मुझे उच्च शिक्षा दिलाई और मुझे हर क्षेत्र में आगे बढ़ने की पूर्ण स्वतंत्रता दी.मेरी मां जो स्वयं अधिक पढ़ी-लिखी न होने के बावजूद बहुत ही आधुनिक विचारों की महिला थीं,इसलिए उनका भी मुझे भरपूर सहयोग मिला. अध्धयन काल में मेरी कुछ छिटपुट रचनाएं राष्ट्रीय स्तर की पत्रिकाओं में छपीं.एक बाल उपन्यास भी बच्चों की पत्रिका ‘बालभारती’ में छपा,लेकिन पिता जी के प्रोत्साहित करने के बावजूद मैंने लेखन को कभी गंभीरता से नहीं लिया. मेरी विदाई के समय मेरी मां ने मेरे पति को कहा कि मेरी पढ़ाई बेकार नहीं जानी चाहिए.उन्होंने इस बात की गाँठ बांध ली और हर क्षेत्र में कुछ भी करने की पूर्ण स्वतंत्रता दी.जीवन की आपा-धापी में पढ़ना तो जारी रहा, लेकिन लेखन की ओर कभी ध्यान ही नहीं गया. जब मेरा बेटा 3 वर्ष का हो गया तो मैंने बी.एड. किया और मुरादाबाद के कॉन्वेंट स्कूल में अध्यापन कार्य किया. मेरी लेखन यात्रा पति के रिटायर्मेंट के बाद मैंने भी ऐच्छिक अवकाश ले लिया और हैदराबाद अपने बच्चों, बेटा नितिन, जो आईटी कंपनी में कार्यरत था और बेटी नीतू, विवाह के बाद यहीं रहती थी,के पास आकर बस गई. अध्यापन से अवकाश मिलने के बाद मेरा लेखन की ओर ध्यान गया और मैंने अपनी इस कला पर गंभीरता से विचार करना आरम्भ किया.जब मेरी पहली कहानी हैदराबाद के समाचार पत्र ‘डेली हिन्दी मिलाप’ में छपी तो मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा और उसके बाद से ‘अकेला ही चला था जानिब-ए-मंज़िल मगर लोग साथ आते गए और कारवां बनता गया ‘ मजरूह सुलतान पुरी के ये बोल सार्थक होते गए.पाठकों की सराहना मिलती गई और लेखन निर्बाध चलता रहा..लेखन की शुरुआत एक समाचार पत्र से आरम्भ हुई और धीरे-धीरे प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में भी छपने लगी.कहानियों के बाद सामयिक समस्याओं पर लेख,किताब का अनुवाद और किसी मित्र लेखिका की किताब पर मन के उद्गार लिखने के बाद अन्य कई प्रसिद्ध लेखकों द्वारा भी उनकी किताब की समीक्षा के प्रस्ताव आने लगे और उसके बाद नम्बर आया अपनी कुछ रचनाओं को एक किताब में संकलित देखने का मोह, जो कि सुखद सपने के सच होने जैसा रोमांचक है.बस एक बात का मलाल ज़रूर है कि मैंने लेखन-कार्य बहुत देर से आरम्भ किया,लेकिन ‘कभी नहीं से देर भली‘यह सोच संतुष्टि देती है. मेरे लेखन से मुझे सबसे अधिक लाभ हुआ कि मैं बहुत सारे बुद्धिजीवी लोगों से जुड़ गई. उनसे फेसबुक और व्हाट्सऐप द्वारा संपर्क से और उनकी रचनाएं पढ़ कर मुझे बहुत प्रेरणा मिली और बहुत कुछ जानने और सीखने को मिला. लेकिन इस उपलब्धि पर सबसे अधिक जिनको श्रेय मिलना चाहिए, मेरे माता-पिता दोनों ही इस दुनिया को अलविदा कह चुके हैं.आज जब अपनी पहली पुस्तक के लिए भूमिका लिख रही हूं तो उनकी बहुत याद आ रही है,लेकिन मेरा मानना है कि उनके आशीर्वाद से ही मैं उनका सपना पूर्ण करने में समर्थ हुई हूं. अपनी उपलब्धियों में मैं अपनी स्कूल की भाषा की अध्यापिकाओं के सहयोग को भी नहीं भूल सकती.मेरी स्कूली शिक्षा दिल्ली के जिस सरकारी स्कूल में हुई है,वहां का अनुशासन और पढ़ाई आज के अंग्रेज़ी स्कूलों से कहीं बेहतर थी. मेरी संस्कृत,हिन्दी और अंग्रेज़ी की अध्यापिकाएं इन विषयों को मात्र विषय के रूप में अंक प्राप्त करने के उद्देश्य ही नहीं पढाती थीं,बल्कि उसकी गहराई में जाकर एक भाषा के रूप में पढाती थीं और स्वाध्याय के लिए प्रेरित करती थीं,जिससे भाषा आत्मसात हो जाती थी और रटने की आवश्यकता नहीं पड़ती थी और पढ़ना रुचिकर लगता था. मैंने अपने अध्यापन काल में उनका ही अनुकरण किया. मेरी उन अध्यापिकाओं का धन्यवाद जिन्होंने मुझे ऐसी शिक्षा दी, जिसके कारण मैं एक लोकप्रिय अध्यापिका बनी. इस किताब को लिखने का मेरा उद्देश्य मैंने अपने अध्ययन और अध्यापन काल में महसूस किया कि लेखकों की जीवनियाँ इतनी संक्षिप्त और नीरस होती थीं कि जिसमें समझने वाली और व्यावहारिक ज्ञान देने वाली कोई बात ही नहीं होती थी और उसे रटना ही पड़ता था, जो कि बहुत उबाऊ प्रक्रिया होती थी, इसलिए मैंने बहुत शोध करके कुछ लेखकों के व्यक्तिगत जीवन और संघर्ष करते हुए, उनके उद्देश्य और उपलब्धियों की प्राप्ति का गहन अध्ययन किया और उसके बारे में विस्तार से सहज,सरल और रोचक भाषा में इस किताब में लिखा है,जिससे पाठक रूचि लेकर पढ़ें. प्रसिद्ध साहित्यकार अपने जीवन में आए निरुत्साहित करने वाली घटनाओं और कैसे-कैसे संघर्षों के बाद भी निरंतर हिम्मत न हारकर आगे बढ़ते गए, जानकार मुझे बहुत प्रेरणा मिली और वही प्रेरणा मैं इस किताब द्वारा अपने पाठकों को देना चाहती हूं. आज की युवा-पीढ़ी छोटी-छोटी परेशानियों से घबड़ा कर आत्महत्या तक का कदम उठा लेने की नासमझी करती है,जो कि अत्यधिक चिंता का विषय है, और उनके जीवन से प्रेरित होकर असफलताओं के प्रति अपनी नकारात्मक सोच को बदलें और उनको एक सबक के रूप में लें..मेरा यह प्रयत्न सफल होगा तो मैं अपने को धन्य मानूंगी.यह किताब शोध विद्यार्थियों के लिए भी उपयोगी होगी, ऐसा मेरा मानना है. टीमवर्क का प्रतिफल है, इस किताब का छपना किताब के छपने पर लेखक के नाम पर ही सबसे पहले दृष्टि जाती है,जबकि यह बहुत सारे लोगों के सहयोग का प्रतिफल होता है.मेरे लेखन में और इस किताब के छपने में मेरे पति और मेरे बच्चों का भी बहुत प्रोत्साहन और सहयोग है. बच्चे विदेश में रहते हुए मेरी छोटी-छोटी लेखन से सम्बंधित समस्याओं को दूर करते हैं.मेरी बेटी नीतू के कारण ही मैंने कंप्यूटर पर उंगली चलाना सीखा. मेरा बेटा नितिन मेरी हरेक रचना को पढ़ कर सुझाव देता है और इस किताब के छपने में उसका बहुत योगदान है. आज के बच्चे बदलते जमाने के अनुसार अपने माता-पिता की सोच को भी बदलने की सलाह देते हैं और उनके सच्चे मार्ग- दर्शक होते हैं,ज़रुरत है उनकी सोच को समयानुकूल समझने की और उसको आदर देने की. मेरी इस पहली किताब के छपने से वे बहुत उत्साहित हैं. मेंरी ग्यारह वर्षीया नातिन आन्या, जो अमेरिका में पैदा हुई और वहीं रहने के बाद भी बहुत अच्छी हिन्दी बोलती है ने भी अपने स्तर पर कई सुझाव दिए और मेरी इस किताब के छपने की बहुत बेसब्री से प्रतीक्षा कर रही है.मेरी बहू श्वेता, जो मेरे घर की रौनक पांच वर्ष पहले ही बनी है,के सहयोग का जिक्र न करना उसके प्रति अन्याय होगा और मेरी चार वर्षीया पोती वान्या भी मुझे लैपटॉप पर लिखते देख कर कहती है, “दादी..,आप क्या लिख रही हैं..?” तो मुझे लगता है कि मेरा लेखन ही सफल हो गया. इस किताब के छपने में सहयोग देने के लिए प्रसिद्ध लेखिका ‘आरती प्रियदर्शिनी’ का नाम लेना अति आवश्यक है,जिन्होंने प्रतिष्ठित पत्रिका ‘अहा ज़िंदगी’ में छपा मेरा आलेख ‘एक थी अमृता’,जो कि प्रसिद्ध लेखिका ‘अमृता प्रीतम’ के जीवन पर आधारित था से प्रभावित होकर मुझे महान साहित्यकारों के बारे में लिख कर एक किताब में संकलित करवाने की सलाह दी और मेरी किताब के लिए भी अपने उद्गार लिखे.मैं उनकी आभारी हूं. लखनऊ विश्वविद्यालय के (भाषा विज्ञान विभाग से आचार्य और अध्यक्ष पद से सेवानिवृत्त) विदुषी आदरणीय उषा सिन्हा जी’ ने अपना कीमती समय निकल कर मेरी पुस्तक की बहुत रोचक और सारगर्भित विवेचना की है,जिसको पढ़ने से ही लगता है कि उन्होंने मेरे पांडुलिपि को बड़े मनोयोग से पढ़ा है.उनके लिखने से मेरी किताब का महत्व चौगुना हो गया और मुझे बहुत प्रेरणा मिलने के साथ मेरा लेखन भी सार्थक हो गया है.मैं उनकी बहुत आभारी हूं. प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक,चिंतक लेखक ‘शिखर चंद जैन’( मोटिवेशनल लेखक ,बाल साहित्यकार एवम् स्तंभ लेखक)ने भी अपनी बहुमूल्य प्रतिक्रिया देकर इस किताब को महिमा मंडित किया है.इतना ही नहीं किताब का नामकरण भी उन्हीं ने सुझाया है.उनका कहना है कि आज के दौर में जब साहित्य को उसकी वांछित प्रतिष्ठा नहीं दिलवाई जा पा रही, तो कम प्रचार प्रसार का युग होने के बावजूद जिन साहित्यकारों ने ऐसा किया वे साहित्यवीर ही हैं। मैं उनकी बहुत आभारी हूं. आदरणीय वीणा सिंह (सेवानिवृत्त हिंदी शिक्षिका,साहित्याचार्य, विद्यावारिधि)ने भी अपना कीमती समय निकाल कर बहुत सारगर्भित शब्दों में इस किताब की विवेचना की है. (‘द हैदराबाद पब्लिक स्कूल’ रामंतपुर,हैदराबाद) की आदरणीय उर्मिला पाण्डेय ने भी मेरी इस किताब पर अपने सकारात्मक विचार लिख कर मेरा मनोबल बढ़ाया है और इस किताब में चार चांद लगा दिए हैं.मैं सबकी दिल से आभारी हूं. इस किताब की प्रकाशक ‘नीलू सिन्हा जी’ की आभारी हूं,जिन्होंने अपने प्रकाशन ‘प्रखरगूंज’,जो कि इस समय कुछ अतिरिक्त विशेषताओं के कारण बहुत लोकप्रिय है,से मेरी किताब को छापने का काम स्वीकार किया. मेरी यह पहली पुस्तक है,इसलिए त्रुटियां अवश्यम्भावी हैं,कृपया उनसे मुझे अवगत करने का कष्ट कीजिएगा, जिससे मैं भविष्य में सुधार कर सकूं.धन्यवाद. सुधा कसेरा(sudhakasera@gmail.com) सिकंदराबाद