किसी ने कहा -मुकुंद बाबू इस दुनियां में नहीं रहे। मुकुंद बाबू नहीं रहे ................... हा........हा.... हमें छोड़ चले गए। अब हमारा क्या होगा? -शराबी दहाड़ मार रो रहा था। दूसरा शराबी हतप्रभ उसकी ओर टकटकी लगाए देखे जा रहा था। उसे शायद अचानक हुई इस प्रतिक्रिया की उम्मीद नहीं होगी। चल एक पैग और बना। बड़ा पैग ..... मुकुंद बाबू चले गए। और दोनों अपनी दुनियां में वापस रम गए। शिवजी के मंदिर के सामने से पगले का चिर परिचित गीत सुनाई पड रहा थी। ....... उड़ जाएगा हंस अकेला...... जग दर्शन का मेला...... जैसे पात गिरे तरूवर से ............. शिवजी के मंदिर के बरामदे पर ही यह पगला रहा करता था। कहाँ स आया था किसी को भी नहीं मालूम। कहीं से भोजन मिल जाता और पड़ा रहता। गीत की यही पंक्तियां ही शायद उसे याद थी जिसे वह दुहराते रहता था। जब छुट्टियों में कोलकाता से आता था और मंदिर के सामने की बस स्टैंड पर उतरता था तो गीत के ये बोल सुनाई पड़ते थे। अच्छा लगता था पर कभी अर्थ या आशय को जानने की उत्कंठा न जगी। पर आज न जाने क्यूं उस पगले के प्रति मन में एक श्रद्धा और आदर का भाव पनप रहा है। उसकी पंक्तियों में जीवन का कितना गूढ़ रहस्य छिपा हुआ था। हमसब भी तो हंस ही हैं। अकेले आए थे और अकेले ही चल जाएंगे। हमारे साथ कुछ नहीं जानेवाला। जैसे मुकुंद बाबू जा रहे हैं। तो क्या हमारे जीवन का यही सत्य है? तो फिर इस आने-जाने के बीच के क्रम में ये ईष्र्या, द्वेष, छिनने और स्वयं के लिए जमा करने की प्रवृत्ति क्यों? इन्हीं सोच-विचारों में मग्न सुल्तानगंज माँ गंगा के तट पर पहुच गए। दाह संस्कार की तैयारियां चलने लगी। मेरा मन विचलित हो रहा था। मुझे अपने माता-पिता, परिजनों के चेहरे नजर आने लगे।