स्वर्गीय श्री अरविंद घोष को ‘योगिराज अरविंद’ नाम से ख्याति प्राप्त है। घर के अंग्रेजियत भरे वातावरण और इंग्लैण्ड में अंग्रेजी शिक्षा ग्रहण करने के उपरांत भी अरविंद स्वदेश और स्वराज के प्रति समर्पित रहे। उनकी रचनाएं आज भी मानवता पर उपकार सिद्ध हो रही हैं। 1893 में लंदन से भारत वापस आने के उपरान्त 1910 तक चंद्रनगर तथा उसके बाद पाण्डिचेरी प्रस्थान करने तक का अरविंद का सफर देश और धर्म के लिए समर्पित रहा। 1910 के उपरान्त भी 1926 तक वे अपनी रचनाओं द्वारा देश, जाति को न कुछ प्रदान करते रहे हैं, किंतु उसके बाद के 24 वर्ष का उनकी जीवन योग-साधना और सिद्धि︎ का जीवन रहा है। इन अंतिम 24 वर्षों के उनके जीवन का कोई क्रम अथवा गतिविधि किसी भी प्रकार कहीं भी उपलब्ध नहीं है। इस जीवनी के लेखक ने यथाशक्ति निष्पक्ष रहने और अरविंद के भक्तों की अपार श्रद्धा को ध्यानमें रखने का भरसक प्रयत्न किया है। तदापि जहां कहीं हमें शंका हुई, उसका उल्लेख करना कर्त्तव्य मान उसका समावेश अवश्य किया है क्योंकि यह जीवनी सामान्य पाठकों के लिए लिखी गई है।, मात्र भक्तों के लिए नहीं।