सदगुरु की शरण में जाकर एक नया जन्म होता है। जहां पुराना गलकर पिघल जाता है और सिर्फ रह जाता है- एक नया मनुष्य। नया मनुष्य बनना अर्थात् बंधनों से मुक्त होना, बच्चे सा निर्दोष बनना। कोरी स्लेट बनना। यह प्रयास से नहीं समझ या बोध से होता है और समझ के अंदर विस्फोट से होता है। पर्त दर पर्त अपने को उखाड़ते जाना है। अचेतन को चेतन बनाना है। यह तभी संभव होता है जब नज़र उस नज़र से मिल जाए और कहने को सिर्फ रह जाए- उस नज़र ने क्या से क्या बना दिया। स्वामी ज्ञानभेद भी इन्हीं नजरों द्वारा आत्मा को स्वयं के अहंकार बोध से मुक्त कर अस्तित्व के द्वार पर आखिरी छलांग लगाना चाहते हैं। सदगुरु की अनुकंपा और करुणा ही इसमें उनके साथ है।