आज जो बरगद का छायादार पेड़ है, वे कभी धरती के गर्भ से फूटा हुआ हरा तिनका था और आज जा यह छलछलाती नदी है वह कभी पहाड़ की छाती से फूटा हुआ झरना था, परंतु झरना हो या नदी, दोनों का स्वभाव सदा से एक ही रहा-दूसरों के लिए बहते रहना । मैं रमेश अग्रवाल जी को तब से जानता हूं, जब व एक लहलहाते पौध के समान आगे बढ़ने की लालसा वाले किशोर थे । जब वे पढ़ने के लिए अपन गांव से हिसार जाया करते थे, वापस गांव आते समय हिसार से चाय पत्ती, चप्पल-जूते आदि ले आते थे साइकिल पर आसपास के गांव में बेचकर अपनी पढ़ाई और घर के खर्च में सहयोग करत थे । इस तरह ठेठ जमीन से उठे रमेश जी अन्य लड़कों से कुछ विशेष थे । उनके मन में सदैव कुछ बड़ा करने की उमंग रहती थी । आँखों में कुछ अच्छा और संतुष्टि देने वाला काम करने के सपने रहते थे।
'परिदों को नहीं दी जाती तालीम उड़ने की, वो खुद ही तय करते है, मंजिल आसमानों की रखते है हौसला जो आसमां को छूने का, उनको नहीं होती परवाह जमाने की।