आज आदमी की अपनी नासमझी के कारण न केवल भगवान शब्द झूठा होता जा रहा है बल्कि गुरु शब्द भी एक ढोंग का नाम बनकर रह गया है। सच तो यह है कि भगवान और गुरु की पहचान, परिभाषा तथा अंतर व महत्त्व जिस ढंग से समझा व जाना जा सकता है वह माध्यम ही कमजोर हो गया है। यानी भक्त और शिष्य। क्योंकि भगवान को पहचानने के लिए सच्चा भक्त चाहिए और गुरु को पहचानने के लिए सच्चा शिष्य। न तो हम सच्चे भक्त बने हैं न ही असली शिष्य। हम भगवान और गुरु को सरलता से अंधविश्वास या आडंबर कहकर टाल देते हैं, दोनों पर उंगली तो उठा देते हैं पर क्या कभी हम यह सोचते हैं कि क्या हम सच्चे भक्त या असली शिष्य हैं? क्योंकि भगवान कौन है, कैसा है, कहां रहता है या गुरु कौन है, उसकी पहचान क्या है? आदि प्रश्न तभी हल हो सकते हैं। नहीं, हम अपने आप से यह नहीं पूछते। हम बहस करते हैं, तर्क देते हैं और सबूत मांगते हैं कि बताओ कौन है भगवान? कहां है भगवान? किसी ने उसे देखा है? देखा है तो जाहिर करो, प्रमाण दो आदि-आदि?
इस पुस्तक में मात्र गुरु-शिष्य की भूरी-भूरी बातें ही नहीं बल्कि कड़वी सच्चाइयां भी हैं जो तथाकथित साधु-संतों एवं गुुरु-बाबाओं का कोरा चिट्ठा भी खोलती हैं, जैसे- गुरु बनने का चस्का, बदल रही है गुरुओं की आभा-परिभाषा, गुरु बनना हुआ आसान, गुरु हुए बाजारू आदि कई व्यंग्य व कटाक्ष भी इस पुस्तक का हिस्सा हैं जो भीड़ में छिपे नकली गुरुओं का पर्दाफाश करते हैं।