पारिवारिक और सामाजिक परिस्थितियों को उभार कर अपना तीसरा उपन्यास 'घर और वर' को आपके समक्ष उपस्थित करते हुए मुझे बेहद खुशी मिल रही है। परिस्थिति मुनष्य को बिना डोर के बन्धन में ना चाहती है, चाहे उसकी नींव मजबूत हो या नहीं हो। मनुष्य परिस्थिति का गुलाम सदा रहा है। फलतः वह अपने स्वतंत्र भाव से अपने बच्चों के भविष्य का निर्वाचन नहीं कर पाता है। फल यह होता है कि उसे अपनी किस्मत पर ही नहीं रोना पड़ता है, बल्कि अपनी मूर्खता, अपनी अज्ञानता, अपनी परिस्थिति के कारण समाज की निगाहों में शर्मिन्दा होना पड़ता है। 'घर और वर' मनुष्य की स्थिति का, सामाजिक बन्धनों का, नारी के दुर्भाग्य और सौभाग्य का जीता-जागता एक नमूना है। घर की समस्या, वर की समस्या से कोई मनुष्य अछूता नहीं रहा है। किसी-न-किसी दिन पारिवारिक एवं सामाजिक बन्धनों में बँधकर रहना उसे स्वीकार करना ही पड़ता है। 'घर और वर' समाज की ऐसी ही कहानी का उद्गार है। अगर आपके मन को मेरा यह उपन्यास पारिवारिक एवं सामाजिक जीवन की गहराइयों की अनुभूति करा सके, तो मेरा समय और परिश्रम जो इसको लिखने में लगा है, व्यर्थ सिद्ध नहीं होगा।