ओशो का जीवन समस्त सृष्टि विकास का नवनीत है । वे मानव के समग्र जीवन के अर्क हैं । खतरों से सतत खेलना उनका सहज स्वभाव है । उनकी वाणी में उन समस्त विविधता युक्त पुष्पों का सौरभ बिखरा है जो देश-काल के किन्हीं बिन्दुओं पर खिले हैं ।
एक फकड़ मसीहा : ‘ओशो’ के रचनाकार ने इस सत्य को अपनी जागरूक-संवेदना से निकट एवं दूरदृष्टि से निरखा, परखा एवं पचाया है । ‘सत्य’ को ग्रन्थ की सृजन साधना में ‘परिहितार्थ वाङमनसो यर्थाथत्वं सत्यमं’ के आयाम में श्रंगारित किया है । यह ग्रंथ सद्गुरु ओशो की प्रामाणिक निजता का जयगान है । जो हमें अपनी निजता में प्रामाणिक रूप से जीने का संदेश देता है । अन्धकार ओशो का संन्यासी है, फक्कड़ है, मस्त है-प्रेम और भक्ति में डूबा है, उसे ओशो के सत्य की नाजुकी का बोध है-वह सत्य जिसके लिए कामना और चाह भी श्रम है, उपलब्ध में बाधा है । वह कितना नाजुक होगा, कितना कोमल, कितना सूक्ष्म, कितना विभु, कितना अनन्त । इतना कोमल कि उसकी चाह मात्र उसे छिन्न-भिन्न करती हो, कामना तक का स्पर्श जिसे विकृत कर देता हो । उसकी सजीव संवेदना सर्वत्र व्याप्त है उसने जड़-चेतन सभी की पीड़ा को महसूस है, पृथ्वी और मनुष्य को कराहते बिलखते उससे नहीं देखा जाता । उसके परम सत्य के सहस्रदल से करुणा धनीभूत होकर विद्रोह के स्वर में समग्र जीवन क्रान्ति का अन्धड़-तूफान उठाती है । अविद्या का नाश करती है ।