अश्विनीकुमार दुबे की व्यंग्य–कथाओं को पढ़ने के बाद मुझे लगा कि साहित्यकार भी व्यंग्य में अपनी धाक जमा सकता है । मूलतः कहानीकार एवं उपन्यासकार होने के बाद भी व्यंग्य लेखन में उनकी पकड़ बरकरार है ।
श्री हरिशंकर परसाई, शरद जोशी को हम स्वातंत्र्योत्तर व्यंग्य के पुरोधा मानते हैं । वे भी पत्र–पत्रिकाओं में स्तंभ लिखकर, आम लोगों की समस्याओं को बखूबी अपने पैने व्यंग्य के माध्यम से लोगों के सामने रखते थे । उन्हें शाश्वत व्यंग्य लिखने के लिए किसी साहित्यिक भाषा की आवश्यकता भी नहीं होती थी । बात बड़ी से बड़ी, साधारण शब्दों में जन–जन तक पहुंचाने की कला ही उन्हें महान् बनाती है ।
श्री दुबे की व्यंग्य–कथाओं में भी बहुत सहज ढंग से आम आदमी के दुःख–दर्द को व्यक्त किया गया है । उनकी भाषा में भी वही भाव है, कहीं शब्दों की नक्काशी और थोपे हुए शब्दाडंबर नहीं है ।
श्री दुबे ने भी अपनी पुस्तक का शीर्षक ‘चुनी हुई इक्यावन व्यंग्य रचनाएं’ रखा है और इसकी प्रथम रचना ‘जुरासिक पार्क’ में विलुप्त हुए डायनासोर की तलाश की कथा है । सचमुच में इस तलाश के बीच इस जंगल के शोर–शराबे में भी उनकी व्यंग्य–कथाओं में हमें एक अलहदा सुर सुनाई देता है, जो सुकून देता है कि व्यंग्य की धार अभी सूखी नहीं है ।