श्रीमती सरोज मालू के कविता-संग्रह, ''मन के कितने पास'' को मैंने आद्योपान्त पढ़ा है । इनकी सारी कविताएँ मन, आत्मा, परमात्मा के इर्द-गिर्द घूमती नज़र आती हैं । सारी कविताएँ चाहे छोटी हैं या बड़ी, एक ही सन्देश पाठकों को दे रही हैं कि आत्मा का परमात्मा में विलीन हुए बिना जीवन अधूरा, अशान्त एवं अतृप्त है । श्रीमती सरोज मालू का यह प्रथम प्रयास है । इनके हृदय में सन्त मीराबाई की भांति प्रभु से मिलने की टीस, कसक, तड़प एवं पीड़ा है, जो इन कविताओं में स्वतः ही प्रस्फुटित हुई है । कवि का हृदय भावों का समुद्र होता है । उसके भाव कृत्रिम नहीं, स्वाभाविक होते हैं । चिरंजीवी सरोज एक उदीयमान कवियत्री है । इस संग्रह की कविताएं एक-दूसरे से बढ़कर हैं । कविता पाठक को बाँधे रखती है । भाषा सहज, सरल, सरस एवं हृदय की भाषा है । शब्दाडम्बर एवं विद्वता के बोझ को इस काव्य-संग्रह ने नहीं ढोया है ।
इस काव्य-संग्रह की अनेक कविताओं ने मेरे हृदय को छुआ है । इनकी काव्य लेखन-साधना निरंतर चलती रहनी चाहिए । मैं कवि नहीं हूँ, लेकिन कवि की भावनाओं का पारखी अवश्य हूँ ।
मेरी शुभकामनाएं एवं हार्दिक आशीर्वाद ।
गणपति सिंह
अध्यक्ष विचार भारती