इससे बेहतर सौगात क्या हो सकती थी मित्र यशपाल की रिटायरमट पर कि उनकी साये म गुमी रही असरदार रचनाओं को थोड़ी धूप दिखाई जाए। वो ज़माने भर से चुपचाप मौके-बेमौके बेबाकी से अपनी बात खामोशी से दर्ज करके अपने पास रखते चले आ रहे थे। कभी-कभार 'हिंदी सप्ताह' या किसी हिंदी प्रतियोगिता के अवसर पर ही अपनी रचना सामने लाते थे जो अक्सर 'अलग हट के' या कुछ 'वजनदार' सी मालूम होती थी। यह अहसास गहराता गया कि इस शख़्स के पास कहने को 'कुछ' है जिसे बाहर निकाला जाए तो कुछ नया और अच्छा मिल सकता है, बिलकुल नए तेवरों के साथ...
यही बात मन म जम गई। इस बार मुंबई से ट्रांसफर होकर दिल्ली लौटा तो उनसे प्रस्ताव रखा। स्वभाव से संकोची इस शख़्स ने बमुश्किल ही सही, पर हाँ कह दिया। उनकी मेहनत का आलम देखिए कि यह प्रस्ताव स्वीकार कर लेने के बाद इस संकलन की अधिकांश कविताएं पिछले कुछ माह के दौरान ही लिखी गई हैं और नतीज़ा "मंज़र गवाह हैं" के पुस्तकाकार रूप म आपके सामने है। यह शीर्षक इसलिए कि गुज़रते वक़्त के साथ जो भी मंज़र उनकी आँखों के सामने से निकले, उन्हीं म से कुछ ख़ास लम्हों को उन्होंने बतौर समय-साक्षी यानि 'गवाही' के रूप म तराशकर आपके सामने रख दिया है।