प्रतिबिंब और प्रतिध्वनि काव्य संस्करण के पश्चात 'काव्य-कुसुम' आपके समक्ष प्रस्तुत है। कभी सोचा भी नही था कि, विद्यालय काल में कक्षा मे बैठकर क्लास लेक्चर के समय कॉपी के पिछले पन्नों पर त्वरित उमड़े भावों को उकेरना या कभी मन के उमड़ते विचारों को लिखना, आज साहित्य के क्षेत्र मे नई पहचान बना देगा।
पढ़ने की रुचि वैसे पापा से विरासत मे मिली। हर बात को किस्से-कहानियों के माध्यम से कहने की पापा की आदत थी। घर मे हर पुस्तक आती थी, बस धीरे-धीरे रुचि बढ़ती गयी । हिंदी, गृहविज्ञान, इतिहास सदैव मेरे प्रिय विषय रहे, बी.एड व एम. ए. की शिक्षा भी उसी मे ग्रहण की।
विवाह के पश्चात एक संयुक्त परिवार में आकर जीवन के दायित्वों को निभाने में समय कहाँ पंख लगाकर उड़ गया पता ही नही चला। हां लिखने का शौक था वो धीरे-धीरे चलता रहा।
जीवन की बगिया में पुत्री दिशा व पुत्र देवेश के जन्म के पश्चात उन्ही की परवरिश मे स्वयं को भूल गई । फिर समय ने करवट ली। बच्चों की शिक्षा प्रारंभ होते ही उन्हे पढ़ाते-पढ़ाते पुनः मेरी लेखनी चलने लगी। कुछ अंतराल के बाद मेरे जीवनसाथी ईलेश के प्रेरित करने पर हिंदी प्राध्यापिका के रूप में अध्यापन के क्षेत्र में मैने पदार्पण किया।
स्वंय अध्ययन के साथ-साथ अध्यापन की गहराईयों मे उतरती चली गई। जीवन में कठिनाईयां बहुत आई। अनेक बार परिस्थितिवश हिम्मत हार जाती लेकिन फिर प्रयास करती जब तक सफलता न पा लेती।