समय-चक्र अनवरत चलता रहता है। इसकी दिशा, दशा, गति आदि का अनुमान या आकलन कर हम स्वयं को मोढ़स भी देते रहते हैं, लेकिन सच तो यह है कि हम कभी समय के चक्र को न तो साध पाते हैं, न ही समझ पाते हैं। यह समय कब, किसे, किस मोड़ पर खड़ा कर दे, किससे क्या करवा ले, यह कोई नहीं जानता। इसके साथ ही जिन्दगी का पहिया भी अनवरत घूमता रहता है। कभी-कभी किसी मोड़ पर इस पहिये की गति थमी हुई प्रतीत होती जरूर है, लेकिन रुकती कभी नहीं। विराम लेना तो इसकी प्रकृति ही नहीं है।
मनुष्य की तमाम गतिविधियाँ, चेष्टाएँ आजीवन इसी समय के साथ तालमेल बनाने में उलझी रहती हैं। बाह्य चेष्टाओं के साथ ही मनुष्य के अन्तरमन की उथल-पुथल भी अनवरत चलती रहती है। मन सदैव रमने के लिए किसी सुरुचिपूर्ण आश्रय की तलाश में रहता है। इसी तलाश की प्रक्रिया में वह बहुत सारी यात्राएँ भी करता है। बहुत सारी उधेड़बुन के ताने-बाने भी बुनता है। मानवीय स्वभाव के अनुरूप इसी प्रक्रिया के दौरान कुछ करने, कुछ रचने की भी चेष्टा करता है और जाने-अनजाने कुछ ऐसा हो जाता है, जिस पर उसे स्वयं को भी विश्वास नहीं होता, लेकिन परिणाम से वह पुलकित अवश्य होता है।
हमारा मन चिन्तन लोक में यात्रा करते हुए कभी वर्तमान से दो-दो हाथ करता है, तो कभी अतीत की परतों को उघाड़ कर वहाँ कुछ खोजने का प्रयत्न करता है। कभी यह भविष्य के शून्याकाश में अनेकानेक हवाई किले भी बनाता है। हर जगह, हर ओर एक कहानी, एक कथा गढ़ता चलता है। मन के चिन्तन-चित्रपट पर हर समय कोई न कोई फिल्म चल रही होती है। कभी-कभी कुछ ऐसी कथाओं से भी हमारा सामना होता है, जो बहुत कोशिश के बाद भी मन के पटल से हटने का नाम नहीं लेतीं। ऐसी ही एक कथा ने जाने कब मेरे मन को जकड़ा और अन्ततः इसके प्रवाह ने एक उपन्यास का कलेवर धारण किया।