बालक ही कल का राष्ट्रनिर्माता है। विद्वानों, महापुरूषों तथा राष्ट्रनिर्माताओं की जीवनी से यह ज्ञात होता है कि बचपन में ही उनमें उत्तम चरित्र के लिए आवश्यक संस्कारों, मूल्यों एवं आदर्शों का बीजारोपण हो गया था। चरित्र निर्माण में माता-पिता तथा गुरू के साथ-साथ बाल साहित्य की भी महती भूमिका रही है।
संस्कृत में गुणाढ्य की 'वृहत्कथामंजरी', सोमदेव की 'वृहत्कथासरित्सागर' में लोककथाओं के माध्यम से नैतिक शिक्षा पर बल दिया गया। विष्णु शर्मा के 'पंचतंत्र' तथा नारायण पंडित के 'हितोपदेश' ग्रंथ में पशु पक्षियों के माध्यम से बच्चों को शिक्षा प्रदान की गयी है। इन ग्रंथों का उद्देश्य ही राजा की संतानों को शिक्षित करने हेतु हुआ था। आज भी ये कथाएँ लोकप्रिय हैं।