कई लोगों के मन में यह प्रश्न उठता है कि भारत माता आखिर है कौन? कुछ सोचते हैं कि कोई भी देश माता का रूप कैसे हो सकता है? क्या इसके पीछे कोई तर्क है या कोई मान्यता अथवा कवि की कल्पना ही इसमें सर्वोपरि है? क्योंकि जो लोग मानते हैं कि हमारा देश भारत माता के रूप में प्रतिष्ठित है उनके पास भी कोई ठोस आधार नहीं है कि वह अपने राष्ट्र को माता क्यों कहते हैं? काफी विचार करने के बाद मेरे मन में एक प्रश्न का आविर्भाव हुआ कि अंतरात्मा की जिस उद्गार से हमारे देश के लोग भारत माता की जय का उद्घोष करते हैं वह आधारहीन कैसे हो सकता है? इसके पीछे हो सकता है कोई प्रत्यक्ष तर्क ना हो किंतु यह मान्यता आधारहीन तो बिल्कुल ही नहीं हो सकती। इसका आधार कहीं ना कहीं हमारे राष्ट्र की संस्कृति से संबद्ध हो सकता है। हम जानते हैं कि यह मत सर्वमान्य नहीं हो सकता किंतु अपना अपना मत व्यक्त करने का सबको अधिकार होता है। कदाचित इसी मानवाधिकार के धरातल पर हमने प्रस्तुत पुस्तक कौन है भारत माता? का लेखन आरंभ किया। हमारी लाखों वर्ष पुरानी सनातन धार्मिक संस्कृति अनंत शक्ति के रूप में जगदंबा को प्रतिष्ठित करती आ रही है। हमारे देश में संपूर्ण जगत की माता के रूप में आदिशक्ति गायत्री की साधना का विधान रहा है। प्राचीन काल से लेकर आज तक गायत्री शक्ति की साधना की जा रही है। यह वेद शास्त्रों के माध्यम से पता चलता है। कर्तव्य दान के आधार पर इसी आदिशक्ति के आंशिक विभाजन के फलस्वरूप मां दुर्गा, काली, लक्ष्मी, सरस्वती, सावित्री, गौरी, सीता आदि का आविर्भाव हुआ है। इन्हीं के स्वरूपों को ध्यान में रखते हुए कदाचित हम अपने प्राण प्रिय राष्ट्र भारतवर्ष को एक माता के प्रतीक के रूप में सम्मानित करते हैं। हमारी भारत माता वही दुर्गा आदि हैं। इसे हम मां भारती के नाम से पुकारते हैं ताकि हम प्रतीकात्मक रूप से अपने राष्ट्र से वात्सल्य स्नेह और करुणा को प्राप्त कर सकें। प्रश्न यह उठता है कि एक देश को भारत माता कहने से क्या लाभ? जिस प्रकार हम अपने जन्म देने वाली माता के सम्मान के लिए सदैव तत्पर रहते हैं उसी प्रकार भारत माता का सम्मान और उसकी गरिमा हमारे लिए सर्वोपरि होता है। जब हम अपनी माता का अपमान सहन नहीं कर सकते तो फिर भारत माता को रोते हुए कैसे देख सकते हैं। इसीलिए तो हम मां भारती के लिए अपने प्राण न्योछावर को सदा तत्पर रहते हैं। एक देश को माता के रूप में मान्यता प्रदान करने का यही तर्क हो सकता है। हालांकि, कुछ बुद्धिजीवी पहले भी भारत माता के स्वरुप के विषय में विचार रख चुके हैं। भारत माता की जो तस्वीर आज हमारे सामने प्रत्यक्ष है वह किसी ना किसी विचार से अवश्य सामने रखा गया है। हम इस पर भी वर्णन करेंगे। आइए, भारत माता की प्रतिमा से संबंधित कुछ ऐतिहासिक पहलुओं पर ध्यान दें। 19वीं सदी के उत्तरार्ध में किरण चंद्र बनर्जी ने एक नाटक लिखा था जिसका नाम "भारत माता" था। ऐसा कहा जाता है कि बंकिम चंद्र चटर्जी ने जब वंदे मातरम गीत लिखा था तो इसकी प्रेरणा कहीं ना कहीं उन्हें इसी उपरोक्त नाटक से प्राप्त हुई थी। अवनींद्र नाथ टैगोर ने भारत माता की एक पेंटिंग बनाई जिसमें उन्होंने इसे चार भुजाओं से अलंकृत किया। हालांकि इससे पहले विपिन चंद्र पाल ने भारत माता के स्वरूप पर अपना आध्यात्मिक विचार प्रस्तुत किया और कहा कि यह प्रतिमा कहीं ना कहीं हिंदू धर्म से संबद्ध है। स्वामी विवेकानंद जब शिकागो में हिंदू धर्म का परचम लहरा रहे थे उस समय सिस्टर निवेदिता उनकी शिष्या बनी थीं। वह जब भारत आईं तो उन्होंने इस पेंटिंग को देखा और उसे थोड़ा विस्तृत किया। भारत माता की मूर्ति को खुले पर्यावरण में दर्शाया। मूर्ति के पीछे एक नीला आकाश था और उनके पांव के पास कमल के चार फूल थे। सिस्टर निवेदिता ने भी भारत माता के चार भुजाओं को आध्यात्मिक रूप से प्रेरित बताया। बाद में,भारत माता के लिए काशी विश्वविद्यालय, वाराणसी में मंदिर का भी निर्माण किया गया जिसका उद्घाटन महात्मा गांधी ने 1936 ईस्वी में किया। अब हम भारत माता के संकेत के रूप में सत्य सनातन धर्म की देवियों की विधाओं पर प्रकाश डालते हैं।