AVIKAL MAN
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आत्मकथन इससे पहले कि मैं इस प्रस्तुत संकलन अविकल मन पर अपनी बात कहूँ, मुझे बरबस ही आजकल के गुज़रते हालात पर ग़ुलज़ार साहब की ये पंक्तियां याद आती हैं :- "सब को मालूम है बाहर की हवा है क़ातिल यूँ ही क़ातिल से उलझने की ज़रूरत क्या है दिल बहलाने के लिए घर में वज़हें हैं काफ़ी यूँ ही गलियों में भटकने की ज़रूरत क्या है" बहुत सही नसीहत है उनकी; किंतु मेरा मानना है कि किसी भी रचनाकार को अपने मन-आंगन के घर से बाहर निकलकर दुनिया की सच्चाई पर निग़ाह डालने के लिए निरंतर उलझने और भटकने की भी ज़रूरत है, तभी वह दुनिया की बेपर्दा हक़ीक़त से रूबरू हो पाएगा. केवल घर में रहकर दिल बहलाना ही उसका मंतव्य कभी नहीं हो सकता. इस संकलन की रचनाकार में ये कसक सहज ही दिखाई पड़ती है :- समंदर में डूबकर भी क्या हासिल होगा मोती बनने को तो एक क़तरा काफ़ी है सोचा था शहर में जानते होंगे लोग मुझे साथ चलने को तो मेरा साया काफ़ी है हमारा जीवन हर पल होते अनुभवों की एक शाश्वत श्रृंखला का नाम है; यानि एक ऐसा अनजान सफ़र जिससे हम निरंतर एक दृष्टा की तरह ग़ुज़र रहे हैं. उसी को आत्मसात करते जाने का और उससे उपजतीं पल-पल की अनुभूतियों को बटोरने का. ऐसे ही कुछ पलों में डूबकर उभरी कोई अदृश्य चेतना जब हमारे अवचेतन पर दस्तक़ देती है और उसे हम लिपिबद्ध कर संजो लेते हैं, तो वो एक ख़ास मिज़ाज़ की कविता बन जाती है. ऐसे ही कुछ पलों में डूबकर उभरीं रचनाओं का संकलन है ये अविकल मन काव्य-संग्रह जो लेखिका की आठवीं कृति के रूप में सामने आया है. मैंने इससे पूर्व के भी उनके सभी संकलन देखे हैं और ये अच्छी बात है कि तज़ुर्बा बढ़ने के साथ-साथ उनकी क़लम भावों की अभिव्यक्ति में और भी गहरी हो चली है. इन्हीं के शब्दों में कहें तो :- ज़िंदगी को जब से रहमत समझना सीख लिया मेरे ज़ख्मों ने वहीं से ख़ुद ही भरना सीख लिया बेशक़ दुनिया में फ़नकारों की कोई कमी नहीं हमने भी इस जहां में मुक़ाम बनाना सीख लिया और 'मेरी पहचान' कविता में तो उनकी ये साफ़गोई देखने लायक़ है :- इन हाथों की लक़ीरों पर भरोसा नहीं कोई अपनी मेहनत से बनी किस्मत के जैसी हूं इसी तरह से, आत्मविश्वास से लबरेज़ इस भाव को भी ज़रा देखिए :- कह दो समंदर से भले ही मुझे रास्ता न दे मैं भी कोई डूबता हुआ किनारा नहीं हूँ इस आत्मविश्वास के पीछे निश्चय ही उनके मनन और सक्रिय लेखन की बड़ी भूमिका है जिसने उनकी लेखनी को नए आयाम दिए हैं. हाल ही में कुछ अनकही कुछ मनकही शीर्षक से इनका एक कहानी संकलन भी आया है जो इनकी साहित्यिक विविधता का परिचायक है. यही नहीं, इनके परिचय में रुचियों के उल्लेख में गायन और चित्रकारी का भी समावेश है, जो इनकी बहुमुखी प्रतिभा को दर्शाता है. इससे कुछ ही पूर्व दिल्ली की हिंदी अकादमी के सौजन्य से इसी वर्ष इनका एक और नया काव्य-संकलन अपराजित मन प्रकाशित हुआ है जो कि सराहना की बात है. इनका मानना है कि :- कितने ही इम्तिहां शौक़ से ले जाया कर ऐ ज़िंदगी बस मेरी तरह मुस्कुराया कर ज़िंदगी के ये इम्तिहान तो यूँ ही चलते रहेंगे इनसे जीतकर जीना न आया तो क्या आया और जीतने की जो परिभाषा इन्होंने दी है, वो तो किसी को कभी हारने ही नहीं देगी, ज़रा देखिए तो :- कभी हार जाने से भी जीत हासिल होती है हर बाज़ी को जीत जाने की कोशिश न कर कभी देर रात किसी पगडंडी पर पेड़-पौधों की हवाओं की सरसराहट के बीच धीमे-धीमे गुज़रते हुए हमें कहीं दूर से जैसे किसी पुराने परिचित गीत की आवाज़ मद्धम-मद्धम स्वरों में सुनाई देती है और हम अभिभूत होकर भाव-विह्वल हो उठते हैं, बस ऐसी ही कुछ अनुभूतियां बसी हैं इन कविताओं में - कभी दूर कहीं से आती एक इल्तिज़ा, कहीं फ़िज़ाओं में गूंजती कोई पुकार, कोई आंसू भरी मनुहार या ग़म में डूबी कोई गुहार, कोई पुराना दर्द या बेचैनी, कभी बेइंतिहा ख़ुशी, रिश्तों-नातों के आयाम, दुनियादारी के सलीके या कभी दुनिया के अलग-अलग रंग; और उन्होंने इन सभी को अपने ही नज़रिए से देखने की कोशिश की है. इसकी एक बानगी देखिए :- तन्हाई का शोर सुनना ख़ामोशी से कितना सुक़ून उस में भरा होता है जो पल क़र्ज़ में लिए हमने तुम से उनका हिसाब चुक़ता कहां होता है एक अलग अंदाज़ में अपनी बात कहने का जो हुनर उन्होंने हासिल किया है, वो बड़ी से बड़ी सोच को भी बिल्कुल सरल रूप में हमारे सामने रख देता है. हिंदुस्तानी ज़ुबान या कहें तो हिंदी-उर्दू मिश्रित उनकी रचनाएँ सहज ही पाठकों को समझ में आती हैं और वो उनका पूरा असर महसूस करते हुए उनसे जुड़ जाते हैं. यदि कहूं तो भाषा का यही स्वरूप इनकी सबसे बड़ी ख़ासियत है. ये किसी छंद, अलंकार, विधान, बिंब, प्रतीक या मात्राओं के फेर में नहीं पड़तीं, बस जो भी है; वो सीधा सरल कथ्य है, जो पाठकों के मन में उतरता चला जाता है. इस भाव को देखिए :- पत्थरों के शहर में अब डर बहुत लगता है हम शीशे का दिल लिए छिपते से मिलते हैं थामने को यहां हाथ नहीं मिलते जो चाहो तो देने को तो सब सलाहें लिए यहां मिलते हैं संभवतः यही पाठकों में इनकी बढ़ती स्वीकार्यता और लोकप्रियता का मूलभूत आधार बन गया है जिसे आप फ़ेसबुक या अन्य मंचों से उन्हें बड़ी संख्या में मिल रहे लाइक्स और प्रतिक्रियाओं से जान सकते हैं. ज़रा इस साफ़गोई को भी देखिए :- ख़ुशियों के किस्से ही लोग नहीं पढ़ते तभी तो ग़म भी लिखने लग गए हम सही-ग़लत की क़शमक़श चलती रही दिल ने जो चाहा बस वही कर गए हम जिस बात ने मुझे सर्वाधिक प्रभावित किया है, वो है उनकी रचनाओं में बसी आशावादिता. परिस्थितियां कैसी भी हों, अनुभूतियां कुछ भी कहती हों, परिवेश जैसा भी हो; उनकी रचनाओं में केवल आशा का ही स्वर रहता है और सर्व कल्याण की भावना निहित दिखती है. वो सदैव सभी के प्रति आदर का भाव रखते हुए अपनी बात कहती हैं, कहीं कोई कटुता नहीं. कहीं-कहीं तो बहुत सी रचनाओं में दर्शन और आध्यात्म की भी झलक मिलती है, कुछ बताती और समझाती सी. ज़रा इन भावों पर भी गौर कीजिये :- क्या कहूँ कृष्ण तुम पर ज्ञान कहाँ मेरे भीतर बस कर्मभूमि में तुम जैसा योगी ही बना जाए ऐसी ही और भी बहुत सी बातें हैं इनके लेखन में, जिन्हें आप यह संकलन पढ़कर स्वयं ही जान जाएंगे. मैं धन्यवाद देता हूँ अनुराधा प्रकाशन को जिन्होंने सुरुचिपूर्ण रूप से इसे प्रकाशित किया है. साथ ही, शुभ कामनाएं देता हूँ इस संकलन की रचनाकार को आगे भी इसी तरह से पाठकों के साथ अपनी अनुभूतियां साझा करते रहने के लिए. बस अब आप इन रचनाओं का आनंद लीजिये और अपनी अमूल्य राय से अवश्य अवगत कराइयेगा. शुभ कामनाओं सहित. विनीत, प्रदीप कुमार अग्रवाल 'प्रदीप्त'