कुछ मन से, कुछ मस्तिष्क से
सरिता गुप्ता
संपादिका
आज साहित्य के क्षेत्र में काम करते हुए लगभग 20 वर्ष हो गए हैं । बहुत सारी पत्रिकाओं में अतिथि संपादक के रूप में भूमिका निभाई। नारी अस्मिता पत्रिका में सलाहकार के रूप में लगभग सात-आठ वर्षों तक रही। मैथिलीशरण गुप्त की शताब्दी पर जब एक पत्रिका के द्वारा विशेषांक निकाला गया, तो उसमें भी अतिथि संपादक के रूप में काम करने का अवसर मिला।
आज प्रतिष्ठित साहित्यकार, बहुमुखी प्रतिभा के स्वामी, दिल्ली विश्वविद्यालय के जाने-माने कॉलेज में हिंदी-विभाग के अध्यक्ष-प्रोफेसर डॉ. रवि शर्मा ‘मधुप’ और उनकी जीवन-संगिनी वरिष्ठ शिक्षाविद् एवं बाल साहित्यकार डॉ. सुधा शर्मा ‘पुष्प’ का यह अभिनंदन ग्रंथ जो निकाला जा रहा है, यह वास्तव में किसी भी व्यक्ति के जीवन की बहुत बड़ी उपलब्धि हो सकती है, क्योंकि किसी व्यक्ति का अभिनंदन ग्रंथ निकालने का विचार अगर उनके प्रियजनों, परिजनों के मन में आता है, तो निश्चित रूप से बिना कहे ही यह समझ में आता है कि अमुक व्यक्ति के जीवन में बहुत सारे काम संपन्न हो चुके हैं और कुछ कामों की योजना भी तैयार है, जिन्हें मुकाम तक पहुँचाना है। ऐसा व्यक्ति जिसके चाहने वालों की इतनी भरमार हो; कतार हो कि एक संदेश पर हर व्यक्ति अपने प्रेम की गागर को शब्दों में उड़ेलने के लिए तत्पर हो जाता हो, सोचना नहीं पड़ता कि डॉ. रवि शर्मा ‘मधुप’ के बारे में क्या लिखें.... डॉ. सुधा शर्मा ‘पुष्प’ के बारे में क्या लिखें....! ऐसे व्यक्ति जो सबके दिलों में असीम प्यार, असीम सम्मान को लिए बैठे हैं; उनका अभिनंदन ग्रंथ के संपादकीय का दायित्व जब मुझ जैसे अकिंचन को मिलता है, तो मुझे लगता है कि यह माँ सरस्वती की विशेष अनुकंपा है। उस समय अनायास ही यह श्लोक स्मृति पटल पर अंकित हो गया......
कीटो अपि सुमन: संगादारोहयति सतां शिरम् ।
अश्मापि याति देवत्वं महद्भि: सुप्रतिष्ठित:।।
जिस समय मुझे रवि जी ने फ़ोन पर बताया कि हमारे अभिनंदन ग्रंथ में संपादकीय की भूमिका आपकी रहेगी, तो कुछ समय के लिए तो मुझे ऐसा लगा कि जैसे मैं कोई सपना देख रही हूँ या मुझे कुछ सुनाई नहीं दे रहा| मैं पलंग पर बैठी हुई थी, सँभलकर बैठी और फिर से उनसे कहा - "आप क्या कह रहें हैं, ज़रा दोबारा फरमाइए|” उन्होंने कहा - "क्यों, क्या हुआ? मैंने कुछ गलत कह दिया क्या? "मैंने कहा -"मुझे लग रहा है, मैंने कुछ गलत सुन लिया" ......इसी तरह की बातचीत के दौरान मेरे ऊपर अभिनंदन ग्रंथ के संपादक का दायित्व बहुत ही आत्मीयता से, अधिकार से बहुत ही प्यार से ‘पुष्प’-‘मधुप’ दंपती ने यह कार्यभार जब सँभालने का आदेश दिया, तो मैं अंदर-ही-अंदर अनेक विचारों की बदली में घिर गई थी। थोड़ा-सा डर....थोड़ा-सा संकोच और थोड़ी-सी खुशी......सोच रही थी, इतने बड़े दायित्व को मैं कैसे सँभाल पाऊँगी?.....मैंने फ़ोन पर ही रवि जी से कहा - "आप मुझ जैसी अनाड़ी, अयोग्य के हाथ में इतना बड़ा काम क्यों दे रहे हैं? आपके संपर्क में तो एक-से-एक योग्य ....एक-से-एक बड़े साहित्यकार हैं.........” तो उन्होंने मेरी बात को बीच में काटते हुए कहा - "उसी सूची में से एक, आपके नाम का चयन सुधा जी ने किया है। आपको अपने विषय में नहीं पता, आपके अंदर कितनी प्रतिभा है; हमें हीरे की पहचान है।"
रवि जी की हमेशा से यह विशेषता रही है कि वे कभी भी सामने वाले को हताश नहीं होने देते, सदैव उसका हौसला बढ़ाते हैं। मुझे भी हमेशा आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करते रहे हैं। हर वर्ष नई पुस्तक छपवाने के लिए प्रेरित करते रहे हैं| मेरा कहानी संग्रह – ‘अहसास के पल’ और दोहा संग्रह – ‘सरिता सतसई’ उनकी ही प्रेरणा से आकार ले पाया। सदैव मुख पर भोली-सी मुस्कान लिए, देखने में सरल-सहज, मगर ज्ञान और सरलता का ऐसा अद्भुत संगम कम ही देखने को मिलता है। मैंने ज़माने के लोगों के रंग देखकर कभी कहा था कि-
पद का मद आता सदा, लाख करो इंकार।
अहि काटे का मंत्र है, दर्प का न उपचार।।
मगर रवि जी से मिलने के बाद यह दोहा निरर्थक-सा लगने लगा है। पर सत्य यह है कि अपवाद हर जगह है। रवि जी जैसा इंसान लाखों में एक होता है। न पद का, न योग्यता का, न डिग्रियों का, न अर्थ का किसी भी चीज़ का कलफ़ उनके मलमल-से मन को कड़क करने में कामयाब नहीं हो सका। अपना विश्वास दूसरे के अंदर भरकर अपनी ऊष्मा से नई ऊर्जा भर देने वाले रवि जी हार मानने वाले नहीं हैं। वे जो मन में सोच लेते हैं, उसे करके ही मानते हैं। वे हमेशा कहते हैं रवि शर्मा ने कभी पीछे हटना नहीं सीखा। मेरे ना-नुकुर करने के बाद भी वे अपने विचार पर अंगद के पैर की तरह पूरी तरह से अडिग थे। उन्होंने अपने वाक्य को पुनः दोहराया - "नहीं यह काम आपको ही करना है। मुझे बहुत अधिक सोचने की, या संशय में रहने की आदत नहीं है। अब कैसे करना है, यह आपके ऊपर है| आप विचार कर लीजिए"। जब कोई विकल्प ही नहीं है, तो इस काम को चुनौती समझ कर मैंने भी स्वीकार कर लिया।
अगले दिन से ईमेल के माध्यम से तथा व्हाट्सएप के माध्यम से मैंने लोगों को संदेश देने शुरू किए और उस समय मैं सच में इतनी अभिभूत हो गई, जब लोगों ने प्रो. रवि शर्मा ‘मधुप’ जी के बारे में इतने खुले दिल से अपने प्रेम को; अपनी भावनाओं को; उनके प्रति सम्मान को शब्दों में बाँधा| उनमें कहीं भी कोई भी बनावट नहीं है। सब के विचार सीधे दिल से उतरे हुए ऐसे प्रतीत होते हैं, जैसे पहाड़ों को चीरकर झरना बह रहा हो, जिसका अनंत सौंदर्य आँखों को; मन को असीम सुख और शांति प्रदान करता है। प्राप्त लेख के लेखक उनके विद्यार्थी हों या कॉलेज के सहपाठी, साथ में काम करने वाले प्रोफेसर मित्र हों या साहित्यिक परिवार के कवि मित्र.... महिला मित्र हों या पुरुष मित्र.....उनके बच्चे (जो अब बड़े हो गए हैं) या अन्य परिजन.... सभी का एक भाव बहुत प्रबल और स्पष्ट है कि रवि शर्मा जी ‘यथा नाम तथा गुण’ की कहावत को चरितार्थ करते हैं। किसी को कमतर नहीं, किसी को विशेष नहीं...... यही उनके व्यक्तित्व की सबसे बड़ी बात है, जो उन्हें भीड़ से अलग करती है। चाहे श्रद्धानंद कॉलेज की प्रो. विनीता जी का लेख हो या उनकी पड़ोसी साहित्यकार मित्र सविता चड्ढा जी की उनकी पुस्तकों पर टिप्पणी...... सुनहरी लाल वर्मा ‘तुरंत’ जी का गीत हो या आचार्य अनमोल जी की कविता....... किसी से बरसों से संपर्क में हैं या महीनों से........ किसी से कम मुलाकात हुई है या ज्यादा........ सबने युगल दंपती पर खुलकर प्यार लुटाया है। यह मेरा सौभाग्य है कि बहुत से मित्रों को मैं भी व्यक्तिगत रूप से जानती हूँ।
यह तो सर्वविदित है कि अब तक उनकी 14+22 किताबें आ चुकी हैं, जिनमें से बहुत सारी पुस्तकों के माध्यम से मैंने उनके व्यक्तित्व को जाना समझा। ‘बकरी कल्चर’ उनका व्यंग्य संग्रह है, जो उनके जीवन की सोच के अलग ही पक्ष से परिचय कराता है। व्यंग्य लिखना मुझे सबसे कठिन लगता है। रवि जी के पास शब्दों और भावों की जो अमूल्य निधि है, वह अद्वितीय है, अद्भुत है। उनका लेखन, साहित्य के प्रति समर्पण समाज को एक नई दृष्टि देने का काम करता है। डॉ. रवि शर्मा ‘मधुप’ के भारतीय सांस्कृतिक चिंतन पर आधारित रेडियो धारावाहिक ‘विरासत’ जैसी पुस्तकों की आज के समाज को बहुत अधिक ज़रूरत है। ‘संघर्ष मीमांसा’ काव्य-संग्रह मराठी और अंग्रेज़ी में अनुवाद हुआ, तो उस संग्रह के प्रति मेरा रुझान बढ़ा और उस पुस्तक की हर रचना को मैंने दोबारा बारीकी से पढ़ा मैंने महसूस किया कि मुक्त छंद में लिखीं ये कविताएँ पाठक को कुछ पल के लिए मुक्त गगन में विचरण करने की आनंददायक अनुभूति से सराबोर कर देती हैं। उनका भाव पक्ष इतना प्रबल है कि व्यक्ति चिंतन करने के लिए प्रेरित हो जाता है। हिंदी भाषा पर रवि जी का विशेषाधिकार है, जब वे किसी भी मंच से खड़े होकर हिंदी में भाषण देते हैं, तो उनका शब्द-चयन और वाक्य-संयोजन सुनने वाले सुनते ही रह जाते हैं। श्री राम कॉलेज की प्रिंसिपल जी ने बहुत ही खूबसूरत टिप्पणी की कि -"काश मुझे भी आपकी कक्षा में हिंदी पढ़ने का अवसर मिल जाता