पौराणिक मान्यताओं-प्रसंगों पर न जाएं तो भी प्रकाशपर्व दीपावली अंतस और बाह्य अंधकार को चीर कर जग को उजाले की ओर ले जाता है। प्रकृति मनुष्य और अन्य प्राणियों से सुखद तादात्मय स्थापित कर हर तरफ खुशियां बिखेरती है। ग्रीष्म ऋतु में तप्त और पावस ऋतु से अस्त-व्यस्त समस्त जगत राहत की ठण्डी सांस लेता है। प्रकृति हरियाली बिखेरते हुए नई अंगड़ाइयां लेती है। धरती अपने पुत्रों का भंडार भरने के बाद नई फसलों के लिए अपने को तैयार करती है। हर पल को खुशियों के बीच जीने के आकांक्षी भारतवर्ष में तो इस दीपोत्सव के साथ त्योहारों की शृंखला ही शुरू हो जाती है। ये त्योहार क्लेश-विकारों को दूर कर प्रेम और सह-अस्तित्व का संदेश देते हैं। इन संदेशों को हम कितना सुन-परख पाते हैं, यह हमारे अंत:करण पर निर्भर करता है। आज दिल-दिमाग दोनों पर उपभोगवादी संस्कृति और संस्कार ने अधिकार जमा लिया है। संस्कार इसलिए कि हमें धीरे-धीरे इसका व्यसन सा हो गया है और इस पर आश्रित हो गए हैं। समय के साथ व्यसन संस्कार का रूप ले लेता है। इसने दीपावली के पावन पर्व को बाजार की भाषा में दीपावली का ‘सीजन’ बना दिया है। दीपावली अंदर की बुराइयों को मिटाकर प्रकृति और मानव मात्र में अपनत्व का भाव जगाने का त्योहार है।