समय बदलने के साथ सीखने के उपकरण बदले हैं, सीखने की विषय वस्तु बदली है, बाहरी तकनीकें भी बदली हैं, जिन्होंने सूचना के प्रवाह को अधिक वेगवान बना दिया है। श्रव्य-चाक्षुष ऑडियो-विजुअल माध्यम बड़े सजीव और आकर्षक ढंग से सामग्री को प्रस्तुत करते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो सीखने की बाहरी दुनिया बदलती जा रही है, लेकिन सीखने वाला और सीखने की जैविक-दैहिक प्रक्रिया अब भी ज्यों की त्यों है। अंतत: ज्ञान या क्रिया को आत्मसात करने की प्रक्रिया सीखने वाले के अनुभव की समृद्धि और गुणवत्ता पर ही टिकी होती है। आंतरिक प्रेरणा से संचालित सीखने की प्रक्रिया शिक्षार्थी को स्थायी रूप से समृद्ध करती है। इस प्रक्रिया में माता, पिता तथा गुरुजन की भूमिका महत्वपूर्ण है। उनके प्रति श्रद्धा से ज्ञान की प्राप्ति के लिए यत्न सीखने की स्वाभाविक प्रक्रिया का अंग था। गीता में कहा गया है – ‘श्रद्धावान् लभते ज्ञानम्’। साथ ही शिक्षार्थी के लिए परिप्रश्न और सेवा भी अपेक्षित थी, अर्थात् सीखना एकपक्षीय या एकालापी प्रक्रिया नहीं है। आज शिक्षा के परिदृश्य में मीडिया के प्रवेश के साथ ही सीखने की प्रक्रिया नया आकार ग्रहण कर रही है। वस्तुत: सीखने की कोई सीमा नहीं होती है, इसलिए सीखने की प्रक्रिया को सीखना लर्निंग टु लर्न अधिक महत्वपूर्ण है। सीखने में रुचि जगाने से सीखना बोझ न होकर आनंददायी कार्य हो जाता है।